Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Swami Kumar, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 460
________________ -४५१] १२. धर्मानुप्रेक्षा ३४१ अयः शुभावहो विधिर्यस्य साधुलोकस्य स प्रायः प्रकृष्टचारित्रः प्रायस्य साधुलोकस्य चित्तं यस्मिन् कर्मणि तत्प्रायश्चित्तम् आत्मशुद्धिकरम् । अथवा प्रगतः प्रणष्टः अयः प्राय अपराधः तस्य चित्तशुद्धिः प्रायश्चित्तमपराधं प्राय इत्युच्यते लोकश्चित्तं तस्य मनो भवेत् तस्य शुद्धिकरं प्रायश्चित्तम् । तथा च प्रायश्चित्तमपराधं प्राप्तः सन् येन तपसा पूर्वकृतात् पापात् विशुध्यते पूर्ववतैः संपूर्णो भवतीति प्रायश्चित्तं स्यात् । तस्य कस्य । यः तपस्वी स्वयमात्मना दोषम् अपराध महाव्रतादिन्यूनताकरणलक्षणं न करोति न विदधाति । अपि पुनः अन्यं परं पुरुषं दोषं व्रतातिचारं न कारयति । दोषं कुर्वाणम् अव्रतातिचारमाचरन्तं न प्रेरयतीत्यर्थः । अपि पुनः अन्यं दोषं कुर्वाणं व्रतातिचारमाचरन्तं न इच्छति न अनुमनुते । मनोवचनकायेन कृतकारितानुमतप्रकारेण व्रतातिचारादिकं दोषमपराधं स्वयं न करोति न कारयति नानुमोदयति ३ । परं प्रेरयित्वा मनसादिकेन न करोति न कारयति नानुमोदयति ३ । अन्यं कुर्वन्तं दृष्ट्वा मनसादिकेन न करोति.न कारयति नानुमोदयति३ । दशप्रकार प्रायश्चित्तं यत्याचारोक्तमाह । “आलोयणपडिकमणं उभय विवेगो तहा बिउस्सग्गो। तव छेदो मूलं पि य परिहारो चेव सद्दहणा॥" एकान्तनिषण्णाय प्रसन्नचेतसे विज्ञातदोषदेशकालाय सूरये गुरवे तादृशेन शिष्येण विनयसहितं यथा भवत्येवमवश्चनशीलेन शिशुवत्सरलबुद्धिना आत्मप्रमादप्रकाशन निवेदनम् आलोचनम् । १ । रात्रिभोजनपरित्यागव्रतसहितपञ्चमहाव्रतोच्चारणं संभावनं दिवसप्रतिक्रमणं पाक्षिकं वा । अथवा निजदोषमुच्चार्योच्चार्य मिथ्या मे दुष्कृतमस्तु इति प्रकटीकृतप्रतिक्रियं प्रतिक्रमणम् । ३ । शुद्धस्याप्यशुद्धत्वेन यत्र संदेहविपर्ययो भवतः, अशुद्धस्यापि शुद्धत्वेन वा यत्र निश्चयो भवति, तत्र तदुभयम् आलोचनप्रतिक्रमणद्वयं भवति । ३ । यद्वस्तु नियमितं भवति तद्वस्तु चेन्निजभाजने पतति मुखमध्ये वा समायाति यस्मिन् वस्तुनि गृहीते वा कषायादिकम् उत्पद्यते तस्य सर्वस्य वस्तुनः त्यागः क्रियते, तद्विवेकनामप्रायश्चित्तम् ।। नियतकायस्य वाचो मनसश्च त्यागो व्युत्सर्गः कायोत्सर्गः । ५ । उपवासादिपूर्वोक्तं षइविधं बाह्य तपः तपोनामप्रायश्चित्तम् । ६। दिवसपक्षमासादिविभागेन दीक्षाहापनं छेदो नाम प्रायश्चित्तम् । ७। पुनरद्यप्रभृति व्रतारोपणं मूलप्रायश्चित्तम् । ८ । साधु लोग, उनका चित्त जिस काममें हो उसे प्रायश्चित्त कहते हैं। अतः जो आत्माकी विशुद्धि करता है वह प्रायश्चित्त है । अथवा 'प्रायः' माने अपराध, उसकी चित्त अर्थात् शुद्धिको प्रायश्चित्त कहते हैं। सारांश यह है कि जिस तपके द्वारा पहले किये हुए पापकी विशुद्धि होती है अर्थात् पहलेके व्रतोंमें पूर्णता आती है उसे प्रायश्चित्त कहते हैं । इस प्रकार जो मुनि मन वचन काय और कृत कारित अनुमोदनासे दोष नहीं करता उसके प्रायश्चित्त तप होता है । मुनियोंके आचारमें प्रायश्चित्तके दस भेद कहे हैं, जो इस प्रकार हैं-आलोचन, प्रतिक्रमण, उभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, परिहार और श्रद्धान । एकान्त स्थानमें बैठे हुए, प्रसन्न चित्त, और देश कालको जाननेवाले आचार्यके सामने विनयपूर्वक जाकर, बच्चेकी तरह सरल चित्तसे शिष्यके द्वारा अपना अपराध निवेदन करना आलोचन नामक प्रायश्चित्त है। अपने दोषको यह कह कर 'मेरा यह दोष मिथ्या हो' उस दोषके प्रति अपनी प्रतिक्रियाको प्रकट करना प्रतिक्रमण नामका प्रायश्चित्त है । शुद्ध वस्तुमें भी शुद्धताका सन्देह होनेपर या शुद्धको अशुद्ध अथवा अशुद्धको शुद्ध समझ लेने पर आलोचन और प्रतिक्रमण दोनों किये जाते हैं । इसे उभय प्रायश्चित्त कहते हैं । जो वस्तु त्यागी हुई हो वह वस्तु यदि अपने भोजनमें आजाये अथवा मुखमें चली जाये, तथा जिस वस्तुके ग्रहण करनेपर कषाय वगैरह उत्पन्न होती हो, उन सब वस्तुओंका त्याग किया जाता है । इसे विवेक नामका प्रायश्चित्त कहते हैं । कायोत्सर्ग करनेको व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त कहते हैं । पहले कहे हुए अनशन आदि छः बाह्य तपोंके करनेको तप प्रायश्चित्त कहते हैं । दिन, पक्ष और मास आदिका विभाग करके मुनिकी दीक्षा छेद देनेको छेद प्रायश्चित्त कहते हैं । पुनः दीक्षा देनेको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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