Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Swami Kumar, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 474
________________ -४६९] १२. धमोनुप्रेक्षा जो देह-धारण-परो उवयरणादी-विसेस-संसत्तो । बाहिर-ववहार-रओ काओसग्गो कुदो तस्स ॥४६९॥ [छाया- यः देहधारणपरः उपकरणादिविशेषसंसक्तः । बाह्यव्यवहाररतः कायोत्सर्गः कुतः तस्य ॥] तस्य तपस्विनः कायोत्सर्गाख्यं तपोविधानं कुतः कस्माद्भवति, न कुतोऽपि भवति । तस्य कस्य । यः पुमान् देहपालनपरः, देहस्य शरीरस्य पालनं स्नानभोजनादिना रक्षणं पोषणं तत्र परः। पुनरपि कीदृक्षः । उपकरणादिविशेषसंसक्तः, उपकरणानि पिच्छिकाकमण्डलपुस्तकानि, आदिशब्दात् आसनचक्कलोच्छीर्षफलककर्तरिकाछुरिकावालनखग्राहकादयो गृह्यन्ते । तेषां विशेषः चित्तचमत्कारकारणसमर्थः, तत्र संसक्तः । पुनरपि कीदृक्षः । बाह्यव्यवहाररतः । जिनकृतसमहोत्सवपूजायात्राप्रतिष्ठादानमानादिलक्षणः, तत्र रतः आसक्तः । तथाहि विविधानां बाह्याभ्यन्तराणां बन्धनहेतूनां दोषाणाम् उत्तमस्त्यागो व्युत्सर्गः । आत्मना अनुपात्तस्य एकत्वमनापन्नस्य आहारादेः त्यागो बाह्योपधिव्युत्सर्गः। क्रोधमानमायालोभमिथ्यात्वहास्यरत्यरतिशोकमयादिदोषनिवृत्तिराभ्यन्तरोपाधिव्युत्सर्गः कायत्यागश्चाभ्यन्तरोपाधिव्युत्सर्गः। स च द्विविधः, यावजीवं नियतकालश्चेति । तत्र यावज्जीवं त्रिधा । भक्तप्रत्याख्यानं जघन्येनान्तमुहर्तमत्कृष्टेन द्वादशवर्षाणि. अवान्तरो मध्यमः उभयोपकारसापेक्षं भक्त प्रत्याख्यानमरणम् १। परप्रतीकारनिरपेक्षमात्मोपकार सापेक्षम् इङ्गिनीमरणम् २ । उभयोपकारनिरपेक्षं प्रायोपगमनमरणम् ३ । नियतकालो द्विविधः, नित्यकालः नैमित्तिकश्च । नित्य आवश्यकादयः, नैमित्तिकः पार्वणीक्रियाः निषद्याक्रियादयश्च । क्रियाकरणे वन्दनायाः द्वात्रिंशद्दोषाः, अनादरस्तब्धप्रविष्टपरिपीडित ॥ ४६७-४६८ ॥ अर्थ-जो मुनि देहके पोषणमें ही लगा रहता है और पीछी, कमण्डलु आदि उपकरणोंमें विशेष रूपसे आसक्त रहता है, तथा पूजा, प्रतिष्ठा, विधान, अभिषेक, ज्ञान, सन्मान आदि बाह्य व्यवहारो ही रत रहता है, उसके कायोत्सर्ग तप कैसे हो सकता है?॥ भावार्थ-जैसा ऊपर कहा है कायसे ममत्वके त्यागका नाम ही व्युत्सर्ग तप है, इसीसे उसे कायोत्सर्ग या काय त्याग तप भी कहा है। ऐसी स्थितिमें जो मुनि शरीरके पोषणमें ही लगा रहता है, तरह तरहके स्वादिष्ट और पौष्टिक व्यंजनोंका भक्षण करता है, तेल मर्दन कराता है, यज्ञ विधान कराकर अपने पैर पुजवाता है, अपने नामकी संस्थाओंके लिये धनसंचय करता फिरता है, उस मुनिके व्युत्सर्ग तप नहीं हो सकता । कायत्यागके दो भेद कहे हैं-एक जीवन पर्यन्त के लिये और एक कुछ कालके लिये । यावज्जीवनके लिये किये गये कायत्यागके तीन भेद हैं-भक्त प्रत्याख्यान मरण, इंगिनीमरण, और प्रायोपगमन मरण । जीवनपर्यन्तके लिये भोजनका परित्याग करना भक्तप्रत्याख्यान है। यह भक्तप्रत्याख्यान अधिकसे अधिक बारह वर्षके लिये होता है क्यों कि मुनिका औदारिक शरीर बारह वर्ष तक बिना भोजनके ठहर सकता है। जिस समाधिमरणमें अपना काम दूसरेसे न कराकर स्वयं किया जाता है उसे इंगिनी मरण कहते हैं। और जिस समाधिमरणमें अपनी सेवा न खयं की जाये और दूसरोंसे न कराई जाये उसे प्रायोपगमन मरण कहते हैं । नियत कालके लिये किये जानेवाले कायत्यागके दो भेद हैं-नित्य और नैमित्तिक । प्रतिदिन आवश्यक आदिके समय कुछ देरके लिये जो कायसे ममत्वका त्याग किया जाता है वह नित्य है । और पर्वके अवसरोंपर की जानेवाली क्रियाओंके समय जो कायत्याग किया जाता है वह नैमित्तिक है । छै: आवश्यक क्रियाओंमें से वन्दना और कायोत्सर्गके बत्तीस बत्तीस दोष बतलाये हैं । दोनों हाथोंको लटकाकर और दोनों चरणोंके बीचमें चार अंगुलका अन्तर रखकर १ लमसग पालण। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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