Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Swami Kumar, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 473
________________ ३५४ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० ४६८[छाया-जलमललिप्तगात्रः दुःसहव्याधिषु निःप्रतीकारः । मुखधोवनादिविरतः भोजनशय्यादिनिरपेक्षः ॥ स्वखरूपचिन्तनरतः दुर्जनसजनानां यः खलु मध्यस्थः । देहे अपि निर्ममत्वः कायोत्सर्गः तपः तस्य ॥] तस्य तपस्विनः मुमुक्षोः कायोत्सर्गः व्युत्सर्गः व्युत्सर्गाभिधानं तपः तपोविधानम् । कायं शरीरम् उत्सृजति ममत्वादिपरिणामेन त्यजतीति कायोत्सर्गः तपो भवेत् , व्युत्सर्गाभिधानं तपोविधानं स्यात् । हु इति स्फुटम् । यो मुमुक्षुः देहेऽपि शरीरेऽपि, अपिशब्दात् क्षेत्रवास्तुधनधान्यद्विपदचतुष्पदंशयनासनकुप्यभाण्डेषु दशविधेषु बाह्यपरिग्रहेषु निर्ममत्वः ममतारहितः । दशप्रकारो बायपरिग्रहः, तस्य त्यागो बाह्यो व्युत्सर्गः, देहस्य परित्यागश्च । आभ्यन्तरोपधिव्युत्सर्गः । तथा 'मिच्छत्त वेदरागा तहेव हस्सादिया य छद्दोसा। चत्तारि तह कसाया चोइस अभंतरा गंथा ॥' इति चतुर्दशाभ्यन्तरपरिग्रहाणां व्युत्सर्गः परित्यागः इति अभ्यन्तरव्युत्सर्गः । बाह्याभ्यन्तरोपध्योः इति व्युत्सर्गो द्विप्रकारः । पुनः कथंभूतः। दुर्जनखजनानां मध्यस्थः, दुर्जनाः धर्मपराङ्मुखाः मिथ्यादृष्टयः उपसर्गकारिगो वैरिणो वा, खजनाः सम्यग्दृष्ट्यादयः भाक्तिकजना वा, द्वन्द्वः तेषां तेषु मध्यस्थः रागद्वेषरहितः उदासीनपरिणामः समताभावः । पुनरपि कीदृक्षः । स्वस्वरूपचिन्तनरतः, वस्यात्मनः स्वरूपं केवलज्ञानदर्शनचिदानन्दादिमयं तस्य चिन्तने ध्याने रतः तत्परः । पुनः कीदृक्षः । जल्लमललितगात्रः, सर्वाङ्गमलो जल्लः मुखनासिकादिभवो मलः ताभ्यां जल्लमलाभ्यां लिप्तं गात्रं यस्य स तथोक्तः । पुनः कीदृक्षः । दुस्सहव्याधिषु निःप्रतीकारः, दुर्निवाररोगेषु विद्यमानेषु अतिदुःखपीडावेदनाकारिकुठंदरभगंदरजलोदरकुष्टक्षयज्वरादिरोगसंभवेषु सत्सु औषधोपचारभोजनाच्छादनादिप्रतिकाररहितः । पुनः कीदृक्षः । मुखधोवनादिविरतः, मुखधोवनं वदनप्रक्षालनम् आदिशब्दात् शरीरप्रक्षालनं रागेण हस्तपादप्रक्षालनं दन्तधावनं नखकेशादिसंस्कारकरणं च, तेभ्यः विरतः विरक्तः । पुनरपि कीदृक्षः । भोजनशय्यादिनिरपेक्षः, भोजनम् अशनपानखाद्यस्वाद्यलेयादिकम्, शय्या शयनस्थानम् , पल्यवं मञ्चकादिकम् , आदिशब्दात् आसननिवासपुस्तककमण्डलुपिच्छिकादयो गृह्यन्ते तेषु तेषां वा निर्गता अपेक्षा वाञ्छा ईहा यस्य स निरपेक्षः निःस्पृहः निरीहः ॥ ४६७-६८ ॥ हो जाने पर भी उसका इलाज नहीं करता हो, मुख धोना आदि शरीरके संस्कारसे उदासीन हो, और भोजन शय्या आदिकी अपेक्षा नहीं करता हो, तथा अपने खरूपके चिन्तनमें ही लीन रहता हो, दुर्जन और सज्जनमें मध्यस्थ हो, और शरीरसे भी ममत्व न करता हो, उस मुनिके व्युत्सर्ग अर्थात कायोत्सर्ग नामका तप होता है ॥ भावार्थ-काय अर्थात् शरीरके उत्सर्ग अर्थात् ममत्व त्यागको कायोत्सर्ग कहते हैं । शरीरमें पसीना आने पर उसके निमित्तसे जो धूल वगैरह शरीरसे चिपक जाती है उसे जल्ल कहते हैं, और मुँह नाक वगैरहके मलको मल कहते हैं । कायोत्सर्ग तपका धारी मुनि अपने शरीरकी परवाह नहीं करता, इस लिये उसका शरीर मैला कुचैला रहता है, वह रागके वशीभूत होकर मुँह हाथ पैर वगैरह भी नहीं धोता और न केशोंका संस्कार करता है। अत्यन्त कष्ट देनेवाले भगन्दर, जलोदर, कुष्ट, क्षय आदि भयानक रोगोंके होजाने पर भी उनके उपचारकी इच्छा भी नहीं करता । खान पान और शयन आसनसे भी निरपेक्ष रहता है । न मित्रोंसे राग करता है और न अपने शत्रुओंसे द्वेष करता है, अर्थात् शत्रु और मित्रको समान मानता है । तथा आत्मस्वरूपके चिन्तनमें ही लगा रहता है । तत्त्वार्थसूत्रमें इस व्युत्सर्ग तपके दो भेद बतलाये हैं-एक बाह्य परिग्रह का त्याग और एक अभ्यन्तर परिग्रहका त्याग । खेत, मकान, धन, धान्य, सोना, चांदी, दासी, दास, वस्त्र और बरतन, इन दस प्रकारके बाह्य परिग्रहका त्याग तो साधु पहले ही कर चुकता है । अतः आहार वगैरहका त्याग बाह्योपाधि त्याग है और मिथ्यात्व, तीन वेद, हास्य आदि छ: नोकषाय और चार कषाय, इन चौदह अभ्यन्तर परिग्रहके त्यागको तथा कायसे ममत्वके त्यागको अभ्यन्तर परिग्रह त्याग कहते हैं । इस प्रकार बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रहको त्यागना व्युत्सर्ग तप है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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