Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Swami Kumar, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 472
________________ -४६८] १२. धर्मानुप्रेक्षा ३५३ [छाया-यः नैव जानाति आत्मानं ज्ञानस्वरूपं शरीरतः मिन्नम् । स नैव जानाति शास्त्रम् आगमपाठं कुर्वन् अपि॥] स मुनिः शास्त्रं जिनोक्तश्रुतज्ञानं नैव जानाति नैव वेत्ति । कीहक् सन् । आगमपाठं प्रवचनपठनं जिनोक्तश्रुतज्ञानपठनं पाठनं च कुर्वन्नपि । अपिशब्दात् अकुर्वाणः । स कः । यो योगी नापि जानाति नापि वेत्ति । कम् । आत्मानं खन्चिदानन्द शुद्धचिद्रूपम् । कीदृक्षम् । ज्ञानस्वरूपं शुद्धबोधस्वभावं केवलज्ञानदर्शनमयम् । पुनः कीदृशम् । शरीरात् भिन्नं पृथक्त्वं परमात्मानं न जानाति यः स किमपि शास्त्रं न जानातीत्यर्थः । तथाहि पञ्चप्रकारः स्वाध्यायः । 'वाचनाप्रच्छनानुप्रेक्षानायधर्मोपदेशाः।' यो गुरुः पापक्रियाविरतः अध्यापनक्रियाफलं नापेक्षते स गुरुः शास्त्रं पाठयति । शास्त्रस्यार्थ वाच्य कथयति ग्रन्थार्थद्वयं च व्याख्याति । एवं त्रिविधमपि शास्त्रप्रदानं पात्राय शिष्याय ददाति उपदिशति सा वाचना कथ्यते १। प्रच्छना प्रश्नः अनुयोगः, शास्त्रार्थ जानन्नपि पृच्छति । किमर्थम् । संदेहविनाशाय । निश्चितोऽप्यर्थः किमर्थ पृच्छयते। ग्रन्थार्थप्रबलतानिमित्तम् । सा प्रच्छना निजोन्नतिपरप्रतारणोपहासादिनिमित्तं यदि भवति तदा संवरार्थिका न भवति २। परिज्ञातार्थस्य एकाग्रेण मनसा यत्पुनः पुनरभ्यसनमनुशीलनं सानुप्रेक्षा, अनित्यादिभावनाचिन्तनानुप्रेक्षा ३ । अष्टस्थानोच्चारविशेषेण यत् शुद्ध घोषणं पुनः पुनः परिवर्तनं स आनायः ४ । दृष्टादृष्टप्रयोजनमनपेक्ष्य उन्मार्गविच्छेदनाय संदेहच्छेदनार्थम् अपूर्वार्थप्रकाशनादिकृते केवलमात्मश्रेयोऽर्थ महापुराणादिधर्मकथाद्यनुकथनं स्तुतिदेववन्दनादिकं च धर्मोपदेशः ५। अस्य स्वाध्यायस्य किं फलम्। प्रज्ञातिशयो भवति, प्रशस्ताभ्यवसायश्च संजायते, परमोत्कृष्टसंवेगः संपद्यते। प्रवचनस्थितिर्जागर्ति, तपोवृद्धि भोति, अतीचारविशोधनं वर्वति, संशयोच्छेदो जाघटीति, मिथ्यावादिभयाद्यभावो भवति ॥ ४६६ ॥ अथ व्युत्सर्गतपोविधानं गाथात्रयेणाह जल्ल-मल'-लित्त-गत्तो दुस्सह-वाहीसु णिप्पडीयारो। मुह-धोवणादि-विरओ भोयण-सेज्जादि-णिरवेक्खो ॥४६७॥ ससरूव-चिंतण-रओ' दुजण-सुयणाण जो हु मज्झत्थो। देहे वि णिम्ममत्तो काओसग्गो तओ तस्स ॥ ४६८॥ को नहीं जानता ॥ भावार्थ-शास्त्रके पठन पाठनका सार तो आत्मखरूपको जानना है। शास्त्र पढ़कर भी जिसने अपने आत्मस्वरूपको नहीं जाना उसने शास्त्रको नहीं जाना । अतः आत्मखरूपको जानकर उसीमें स्थिर होना निश्चयसे खाध्याय है । और स्वाध्यायके पाँच भेद हैं-वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश । पापके कामोंसे विरत होकर जो पढ़ानेसे किसी लौकिक फलकी इच्छा नहीं रखता, ऐसा गुरु जो शास्त्रके अर्थको बतलाता है उसे वाचना कहते हैं । जाने हुए ग्रन्थके अर्थको सुनिश्चित करनेके लिये जो दूसरोंसे उसका अर्थ पूछा जाये उसे पृच्छना कहते हैं। यदि अपना बड़प्पन बतलाने और दूसरोंका उपहास करनेके लिये किसीसे कुछ पूछा जाये तो वह ठीक नहीं है । जाने हुए अर्थको एकाग्र मनसे पुनः पुनः अभ्यास करनेको अनुप्रेक्षा कहते हैं । शुद्धता पूर्वक पाठ करनेको आम्नाय कहते हैं । किसी दृष्ट अथवा अदृष्ट प्रयोजनकी अपेक्षा न करके उन्मार्गको नष्ट करनेके लिये, सन्देहको दूर करनेके लिये, अपूर्व अर्थको प्रकट करनेके लिये तथा आत्मकल्याणके लिये जो धर्मका व्याख्यान किया जाता है उसे धर्मोपदेश कहते हैं । खाध्याय करनेसे ज्ञानकी वृद्धि होती है, शुभ परिणाम होते हैं, संसारसे वैराग्य होता है, धर्मकी स्थिति होती है, अतिचारोंकी शुद्धि होती हैं, संशयका विनाश होता है, और मिथ्यावादियोंका भय नहीं रहता ॥ ४६६ ॥ आगे तीन गाथाओंसे व्युत्सर्ग तपको कहते है । अर्थ-जिस मुनिका शरीर जल्ल और मलसे लिप्त हो, जो दुस्सह रोगके १लग जल्लमल। २ ग ससरूवं चिंतणओ। कार्तिके०४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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