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-४७२] १२. धर्मानुप्रेक्षा
३५७ असुहं अट्ट-रउई धम्म सुकं च सुहयरं होदि ।
अट्ट तिव्व-कसायं तिव्व-तम-कसायदो रुदं ॥ ४७१॥ [छाया-अशुभम् आर्तरौद्रं धर्म्य शुक्रं च शुभकरं भवति । आर्त तीव्रकषायात् तीव्रतमकषायतः रौद्रम् ॥] अशुभमातरौद्रं भवति । दुःखम् अर्दनं कष्टम् अतिर्वा कृतमुच्यते, कृते दुःखे भवमार्तम् । रुद्रः क्रूराशयः कृष्णलेश्यापरिणामः प्राणी । रुद्रस्य कर्म रौद्रं रुद्रे वा भवं रौद्रम् । अशुभम् अप्रशस्तम् । आद्यमार्तध्यानं प्रथमम् १। द्वितीयं रौद्रध्यानमशुभमप्रशस्तपापप्रकृतिनिबन्धनं नरकगतिप्रदं कृष्णलेश्योद्भवमिति रौद्रध्यानमशुभं द्वितीयम् २ । धर्म्य धर्मध्यानं शुभं प्रशस्त पुण्यप्रकृतिबन्धनं स्वर्गादिसुखदायक पारंपर्येण मोक्षहेतुकमिति शुभं प्रशस्तं धर्मध्यानम् । धर्मों वस्तुखरूपं धर्मादनपेतं धर्म्य ध्यानं तृतीयम् ३ । च पुनः शुक्र शुक्लध्यानं मलरहितजीवपरिणामोद्भवं शुचिगुणयोगाच्छुक्र शुक्ललेश्योद्भवं वा शुभतरम् अतिशयेन श्रेष्ठम् अतिशयेन प्रशस्त मोक्षदायकमिति चतुर्थ शुक्लध्यानमिति शुभतरम् ४ । अथ द्यर्धगाथया ध्यानाना तीव्रतरादिकषायमेदान् निगदति । अट्टै आर्तम् अंर्ती पीडादिचिन्तने भवमात ध्यानम् तीव्रकषायं तीव्राः दार्वादिसविशेषाः अनन्तानुबन्ध्यादिकषायाः क्रोधमानमायालोभादयो यस्मिन् आर्तध्याने तत् तथोक्तम् आर्तध्यानं तीव्रकषायं तीव्रकषायोदयजम् १ । रौद्रं रौद्राख्यं ध्यानं हिंसानन्दादिरूपम् । कुतः। तीव्रतमकषायतः तीव्रतमा अस्थिशिलाशक्तिविशिष्टाः अनन्तानुबन्ध्यादिक्रोधमानमायालोभादिकषायाः तेभ्यः जातं तीव्रतमकषायोत्पन्नं रौद्रध्यानं स्यात् ॥४७१॥
मंद-कसायं धम्मं मंद-तम-कसायदो हवे सुकं ।
अकसाए वि सुयढे केवल-णाणे वि तं होदि ॥ ४७२ ॥ [छाया-मन्दकषायं धर्म्य मन्दतमकषायतः भवेत् शुक्रम् । अकषाये अपि श्रुताब्ये केवलज्ञाने अपि तत् भवति॥] धर्म्य धर्मे खखरूपे भवं धर्म्य ध्यानम् । कीदृक्षम् । मन्दकषायं मन्दाः दार्वनन्तैकभागलताशक्तिविशेषाः अप्रत्याख्यान
नहीं है । ध्यान अच्छा भी होता है और बुरा भी होता है । जिस ध्यानसे पाप कर्मका आस्रव होता हो वह अशुभ है और जिससे कर्मोकी निर्जरा हो वह शुभ है ॥ ४७० ॥ आगे इन दोनों ध्यानोंके भेद कहते हैं । अर्थ-आर्तध्यान और रौद्रध्यान ये दो तो अशुभ ध्यान हैं । और धर्म ध्यान तथा शुक्लध्यान ये दोनों शुभ और शुभतर हैं । इनमेंसे आदिका आर्तध्यान तो तीव्र कषायसे होता है और रौद्रध्यान अति तीव्र कषायसे होता है ॥ भावार्थ-अर्ति कहते हैं पीड़ा या दुःखको । दुःखसे होनेवाले ध्यानको आर्तध्यान कहते हैं । यह आर्तध्यान तीव्र कषायसे उत्पन्न होता है । कृष्ण लेझ्यावाले क्रूर प्राणीको रुद्र कहते हैं, और रुद्रके कर्मको अथवा रुद्रमें होनेवाले ध्यानको रौद्र कहते है। यह रौद्रध्यान आर्तध्यानसे भी खराब है, चूंकि यह अत्यन्त तीव्र कषायसे होता है । इसीसे ये दोनों अशुभ ध्यान हैं। धर्मसे युक्त ध्यानको धर्मध्यान कहते हैं । यह धर्मध्यान शुभ है, क्योंकि इससे पुण्यकर्मोंका बन्ध होता है, अतः यह वर्ग आदिके सुखोंको देनेवाला है तथा परम्परासे मोक्षका भी कारण है । जीवके निर्मल परिणामोंसे अथवा शुक्ल लेश्यासे ही होनेवाले ध्यानको शुक्ल ध्यान कहते हैं । यह ध्यान सफेद रंगकी तरह खच्छ होता है, इस लिये 'शुचि' गुणसे युक्त होनेके कारण इसे शुक्ल ध्यान कहते हैं । यह ध्यान धर्मध्यानसे भी श्रेष्ठ है क्योंकि मोक्षकी प्राप्ति इसी ध्यानसे होती है ॥४७१॥ अर्थ-धर्मध्यान मन्द कषायसे होता है, और शुक्लध्यान अत्यन्त मन्द कषायसे होता है । तथा यह ध्यान कषाय रहित श्रुत ज्ञानीके और केवल ज्ञानीके भी होता है ॥ भावार्थ-धर्मध्यान अप्रत्याख्याना
१ म सुपट्टे।
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