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स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा
[गा० ४५९सन्मुखत्वेन परमभक्तत्वेन प्रवर्तते । यथा सेवकः राज्ञां सेवा करोति तथा रत्नत्रयधारिणां शिष्यः यो भव्यः अनुकूलत्वेन प्रवर्तते स प्रसिद्धः । उपचारो विनयः, औपचारिकोऽयं विनयो भवति। इति विनयतपोविधानं षष्ठम् ॥ ४५८ ॥ अथ वैयावृत्त्यं तपो गाथाद्वयेन विभावयति
जो उवयरदि जदीणं उवसग्ग-जराइ-खीण-कायाणं ।
पूयादिसु' णिरवेक्खं वेजावच्चं तवो तस्स ॥ ४५९॥ [छाया-यः उपचरति यतीनाम् उपसर्गजरादिक्षीणकायानाम् । पूजादिषु निरपेक्षं वैयावृत्त्यं तपः तस्य ॥] तस्य साधोः वैयावृत्त्यं तपः । व्यावृत्तिः परदुःखादिहरणे प्रवृत्तिः व्यावृत्तेर्भावः वैयावृत्त्यम् । अथवा कायपीडादुःपरिणामविनाशार्थ कायचेष्टया द्रव्यान्तरेणोपदेशेन च व्यावृत्तस्य यत्कर्म तद्वैयावृत्त्यं नाम तपोविधानं भवेत् । तस्य कस्य । यो महान् भव्यः यतीनाम् आचार्योपाध्यायतपस्विशैक्ष्यग्लानगणकुलसंघसाधुमनोज्ञानां दशविधानां पुरुषाणां दशविधं वैयावृत्त्यं भवति । पञ्चधाचारं खयमाचरन्ति शिष्यादीनामाचारयन्तीत्याचार्याः १ । मोक्षार्थमुपेत्याधीयते शास्त्रं तस्मादित्युपाध्यायः श्रुतगुरुः २ । महोपवासकायक्लेशादितपोऽनुष्ठानं विद्यते यस्य स तपस्वी ३ । शास्त्राभ्यासशीलः शैक्षः ४ । रोगादिपीडितशरीरो ग्लानः ५ । वृद्धमुनिसमूहो गणः ६ । दीक्षकाचार्यशिष्यसंघातः कुलं वा स्त्रीपुरुषसंतानः कुलम् ७ । ऋषिमुनियत्यनगारलक्षणश्चातुर्वर्ण्यश्रवणसमूहः संघः, ऋष्यार्यिकाश्रावकश्राविकासमूहो वा संघः ८ । चिरदीक्षितः साधुः ९ । जाना, देव और गुरुके सन्मुख नीचे स्थानपर बैठना, या उनके बाई ओर खड़े होना, ये सब कायिक उपचार विनय है । आर्यिका और श्रावकोंके भी आने पर उनकी यथायोग्य विनय करना चाहिये । गुरुजनोंके परोक्षमें भी उनके उपदेशोंका ध्यान रखना, उनके विषयमें शुभ भाव रखना मानसिक उपचार विनय है । गुरु जनोंके प्रति पूज्य वचन बोलना-आप हमारे पूज्य हैं, श्रेष्ठ हैं इत्यादि, हित मित मधुर वचन बोलना, निष्ठुर कर्कश कटुक वचन न बोलना आदि वाचिक उपचार विनय है । इस प्रकार विनय तपके पाँच भेद हैं। इस विनय तपका पालन करनेसे ज्ञानलाभ होता है
और अतिचारकी विशुद्धि होती है। जिसमें विनय नहीं है उसका पठन पाठन सब व्यर्थ है। विनयी पुरुष वर्ग और मोक्षके सुखको प्राप्त करता है, तीर्थङ्करपद प्राप्त करके पाँच कल्याणकोंका पात्र होता है, और चारों आराधनाओंको भजता है। कहा भी है 'विनय मोक्ष का द्वार है, विनयसे संयम, तप और ज्ञानकी आराधना सरल होती है, विनयसे आचार्य और समस्त संघ भी वशमें हो जाता है।' और भी कहा है-'विनयी पुरुषका यश सर्वत्र फैलता है, सबके साथ उसकी मित्रता रहती है, वह अपने गर्वसे दूर रहता है, गुरुजन भी उसका सन्मान करते हैं, वह तीर्थङ्करोंकी आज्ञाका पालन करता है, और गुणानुरागी होता है।' इस प्रकार विनयमें बहुतसे गुण हैं । अतः विनय तपका पालन करना चाहिये ॥ ४५८ ॥ आगे दो गाथाओंसे वैयावृत्य तपको कहते हैं । अर्थ-जो मुनि उपसर्गसे पीड़ित हो और बुढ़ापे आदिके कारण जिनकी काय क्षीण होगई हो, जो अपनी पूजा प्रतिष्ठाकी अपेक्षा न करके उन मुनियोंका उपकार करता है उसके वैयावृत्य तप होता है ॥ भावार्थ-अपनी शारीरिक चेष्टासे अथवा किसी अन्य वस्तुसे अथवा उपदेशसे दूसरोंके दुःख दूर करनेकी प्रवृत्तिका नाम वैयावृत्य है । यह वैयावृत्य आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष्य, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु और मनोज्ञ इन दस प्रकारके मुनियोंकी की जाती है । इससे वैयावृत्यके दस भेद हो जाते हैं। जो पाँच प्रकारके आचारका स्वयं पालन करते हैं और शिष्योंसे
१ ल म स ग पूजादिसु । २ ब (?) ल म ग विजावच ।
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