Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Swami Kumar, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 469
________________ ३५० स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० ४६१ [ छाया - यः व्यावृणोति स्वरूपे शमदमभावे शुद्ध-उपयुक्तः । लोकव्यवहारविरतः वैयावृत्त्यं परं तस्य ॥ ] तस्य भव्यजीवस्य परम् उत्कृष्टं वैयावृत्त्यं तपो भवेत् । तस्य कस्य । यो भव्यः स्वरूपे व्यापृणोति शुद्धबुद्धचिदानन्दरूपशुद्धचिद्रूपे अमेदरत्नत्रयस्वरूपपरमात्मनि व्यापारं करोति प्रवर्तते आत्मनात्मनि तिष्ठति, आत्मानमनुभवतीत्यर्थः । कथंभूतो भव्यः सन् । शुद्धिउपयुक्तः शुद्धिः निर्मलता तया उपयुक्तः सहितः शुद्ध्यष्टकेनाविष्टो वा । क्व । शमदमभावे शमः उपशमः क्रोधाद्युपशान्तिः दमः पञ्चेन्द्रियनिग्रहः तयोर्भावः परिणामः तस्मिन् शमदमभावे निर्मलतासहितः । अथवा कथंभूते स्वरूपे । शान्तदान्तपरिणामे निर्विकल्पसाम्यसमाधिपरिणामे । पुनः कीदृक्षः सन् । लोकव्यवहारविरतः लोकानां जनानां व्यवहारः अशनपानेन्द्रियविषयप्रवृत्तिनिवृत्तिरूपः व्यापारः तस्मात् विरतः विरक्तः, दानपूजाख्यातिलाभादिविरहितो वा ॥ ४६० ॥ अथ स्वाध्यायतपोविधानं गाथाषङ्केनाह पर-तत्ती' - णिरवेक्खो दुट्ठ-वियपाण णासण - समत्थो । तच्च विणिच्छ्य- हेदू सज्झाओ झाण- सिद्धियरो || ४६१ ॥ [ छाया - परतप्तिनिरपेक्षः दुष्टविकल्पानां नाशनसमर्थः । तत्त्वविनिश्चयहेतुः स्वाध्यायः ध्यानसिद्धिकरः ॥ ] स्वाध्यायः सुष्ठु पूर्वापराविरोधेन अध्ययन पठनं पाठनम् आध्यायः सुष्ठु आध्यायः स्वाध्यायः, सुष्ठु शोभनः आध्यायः स्वाध्याय वा । स्वस्मै स्वात्मने हितः अध्यायः स्वाध्यायो वा सम्यग्युक्तोऽनुष्ठेयः इति स्वाध्यायो वा । स कथंभूतः स्वाध्यायः । परतातिनिरपेक्षः, परनिन्दानिरपेक्षः परेषामपवादवचनरहितः । स्वाध्याये प्रवृत्तः सन् मुनिः तद्गतचित्तवचनत्वात् परेषां निन्दां न विदधाति निन्दावचनं न वक्ति । पुनः कथंभूतः । दुष्टविकल्पानां रागद्वेषार्तध्यानरौद्रध्याना दिविकल्पानां परिणामानां नाशनसमर्थः विनाशने शक्तियुक्तः । अथवा बहिर्द्रव्यविषये पुत्रकलत्रादिचेतनाचेतनरूपे ममेदमिति स्वरूपः संकल्पः, अहं सुखी अहं दुःखीत्यादिचिन्तागतो हर्षविषादादिपरिणामो विकल्प इति दुष्टसंकल्पविकल्पानां संकल्पविकल्परूपमनःपरिणामानां दुष्टानां स्फेटने समर्थः । स्वाध्यायं कुर्वन् सन् तद्गतमानसत्वात् अन्यत्र मनोव्यापारं न करोतीत्यर्थः । भूयोऽपि कथंभूतः स्वाध्यायः । तत्त्वविनिश्चयहेतुः तत्त्वानां जीवादिपदार्थानां विनिश्चयः निर्णयः निर्धारः निःसंदेहः तस्य हेतुः कारणम्, जीवादिपदार्थानां संशय संदेहस्फेट नहेतुरित्यर्थः । पुनरपि कथंभूतः । ध्यानसिद्धिकरः धर्म्यध्यानशुक्लध्यानयोः सिद्धिं प्राप्तिं निष्पत्तिं करोतीति ध्यानसिद्धिकरः, अतः एतद्ध्यानयोः सिद्धिर्भवतीत्यर्थः ॥ ४६१॥ और पाँचों इन्द्रियोंके निग्रहको दम कहते हैं। जो शुद्धोपयोगी मुनि शम दम रूप अपने आत्मखरूप में लीन रहता है, उसके खान पान और सेवा शुश्रूषामें प्रवृत्तिरूप लोकव्यवहार अर्थात् ऊपर कहा हुआ बाह्य वैयावृत्य कैसे हो सकता है ? उसके तो निश्चय वैयावृत्य ही होता है । अतः बाह्य व्यवहार से निवृत्त होकर निर्विकल्प समाधिमें लीन होना ही उत्कृष्ट वैयावृत्य है || ४६० ॥ आगे छः गाथाओंसे स्वाध्याय तपको कहते हैं । अर्थ - खाध्यायतप परनिन्दा से निरपेक्ष होता है, दुष्ट विकल्पोंको नष्ट करनेमें समर्थ होता है। तथा तत्त्वके निश्चय करनेमें कारण है और ध्यानकी सिद्धि करनेवाला है ॥ भावार्थ- सुष्ठु रीति से पूर्वापर विरोधरहित अध्ययन करने को स्वाध्याय कहते हैं । अथवा 'ख' अर्थात् आत्मा के हित के लिये अध्ययन करनेको स्वाध्याय कहते हैं । स्वाध्याय परनिन्दासे निरपेक्ष होता है; क्यों कि खाध्यायमें लगे हुए मुनिका मन और वचन स्वाध्यायमें लगा होता है इस लिये वह किसी की निन्दा नहीं करता । तथा स्वाध्याय करनेसे राग द्वेष और आर्त रौद्र ध्यान रूप दुष्ट विकल्प नष्ट हो जाते हैं । अथवा पुत्र स्त्री धन धान्य आदि चेतन अचेतन बाह्य वस्तुओं में 'यह मेरे हैं' इस प्रकार के परिणामोंको संकल्प कहते हैं, और 'मैं सुखी हूँ' 'मैं दुःखी हूँ', इस प्रकार चित्तमें होने वाले हर्ष विषादरूप परिणामोंको विकल्प कहते हैं । स्वाध्याय करनेसे वे दुष्ट संकल्प विकल्प नष्ट हो जाते हैं, क्यों कि स्वाध्याय करनेवालेका मन स्वाध्यायमें ही लगा रहता है । इस लिये उसका मन इधर उधर नहीं जाता । १ग परतिती । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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