Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Swami Kumar, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 463
________________ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा०४५४प्रतिक्रमणम् , पैशून्यकलहादिकरणे प्रतिक्रमणम् , वैयावृत्त्यस्वाध्यायातिप्रमादे प्रतिक्रमणम् , आचार्यादिषु हस्तपादादिसंघट्टने प्रतिक्रमणम् , व्रतसमितिगुप्तिषु स्वल्पातिचारे प्रतिक्रमणम् , गोचरगतस्य मुनेः लिङ्गोत्थाने प्रतिक्रमणम् , परसंक्लेशकरणादौ च प्रतिक्रमणम् । दिवसरात्र्यन्ते भोजनगमनादौ आलोचनाप्रतिक्रमणद्वयम् , लोचनखच्छेदस्वप्नमैथुनाचरणरात्रिभोजनेषु उभयम् , पक्षमासचतुर्माससंवत्सरादिदोषादौ च उभयम् । मौनादिना विना लोचनविधाने व्युत्सर्गः, हरिततृणोपरि गमने व्युत्सर्गः, कर्दमोपरि गमने व्युत्सर्गः, उदरकृमिनिर्गमने व्युत्सर्गः, हिमदंशमशकादिवातादिरोमाञ्चे व्युत्सर्गः, आर्द्रभूम्युपरि गमने व्युत्सर्गः, जानुमात्रजलप्रवेशे व्युत्सर्गः, परनिमित्तवस्तुनः खोपयोगविधाने व्युत्सर्गः, नावादिनदीतरणे व्युत्सर्गः, पुस्तकपतने व्युत्सर्गः, प्रतिमापतने व्युत्सर्गः, पञ्चस्थावरविघातादृष्टदेशतनुमलविसर्गादिषु व्युत्सर्गः, पक्षादिप्रतिक्रमणक्रियान्तरव्याख्यानप्रवृत्त्यादिषु व्युत्सर्गः, उच्चारप्रस्रवणादिषु व्युत्सर्गः । एवमुपवासच्छेदमूलपरिहारादिकरणं ग्रन्थतो ज्ञेयम् ॥ ४५२ ॥ जं कि पि तेण दिण्णं तं सव्वं सो करेदि सद्धाए। णो पुणु हियए संकदि किं थोवं किं पि बहुयं वा ॥४५३॥ [छाया-यत् किमपि तेन दत्तं तत् सर्व स करोति श्रद्धया । नो पुनः हृदये शङ्कते किं स्तोकं किमपि बहुकं वा॥] यत् किमपि प्रायश्चित्तम् आलोचनाप्रतिक्रमणादिदशभेदभिन्नं तेन श्रीगुरुणा दत्तं वितारितम् अर्पितं तत्सर्वं प्रायश्चित्तम् आलोचनादशभेदभिन्नं स साधुः तपस्वी मुमुक्षुः करोति विदधाति, सर्व प्रायश्चित्तं श्रद्धया रुचिरूपेण अन्तःकरणभावनया करोति । पुनः हृदये स्वमनसि न शङ्कते शङ्कां संदेहं न करोति । मम प्रायश्चित्तं श्रीगुरुणा स्तोकं स्वल्पं दत्तं, वा अथवा, किं बहुतरं प्रचुरं दत्तम् इति नाशङ्कते ॥४५३॥ पुणरवि काउं णेच्छदि तं दोसं जइ वि जाइ सय-खंडं । एवं णिच्छय-सहिदो पायच्छित्तं तवो होदि॥४५४॥ [छाया-पुनर् अपि कर्तुं न इच्छति तं दोषं यद्यपि याति शतखण्डम् । एवं निश्चयसहितः प्रायश्चित्तं तपः भवति ।] एवं पूर्वोक्तप्रकारेण प्रायश्चित्तं प्रायश्चित्ताख्यमाभ्यन्तरं तपो भवति । एवं कथम् । यः निश्चयसहितः जिनधर्मे जिनवचने च किसीकी चुगली करनेपर या किसीसे कलह करने पर प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त होता है । वैयावृत्य खाध्याय वगैरहमें आलस्य करनेपर प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त होता है । आचार्य वगैरहसे हाथ पैरके टकरा जानेपर प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त होता है । व्रत समिति गुप्ति वगैरहमें स्वल्प अतिचार लगनेपर, गोचरीके लिये जाते समय लिंगमें विकार आजानेपर और दूसरोंको संक्लेश पैदा करनेपर प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त होता है। दिन या रात्रिके अन्तमें गमनागमन करनेपर, स्वममें मैथुन सेवन या रात्रिभोजन करनेपर और पाक्षिक मासिक चातुर्मासिक तथा वार्षिक दोष वगैरहमें उभय (आलोचना और प्रतिक्रमण ) प्रायश्चित्त होता है । बिना मौन पूर्वक आलोचन करनेपर, हरे तृणोंके ऊपर चलने पर, कीचड़मेंसे जानेपर, पेटमेंसे कीड़े निकलने पर, शीत मच्छर वायु वगैरहके कारण रोमांच हो आनेपर, घुटनेतक जलमें प्रवेश करनेपर, दूसरेके लिये आई हुई वस्तुका अपने लिये उपयोग करनेपर, नौका आदिके द्वारा नदी पार करनेपर, प्रतिक्रमण करते समय व्याख्यान आदि प्रवृत्तियोंमें लग जानेपर या मल मूत्र करनेपर व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त होता है। इसी प्रकार उपवास, छेद, मूल, परिहार आदि प्रायश्चित्तोंकी विधि अन्य ग्रन्थोंसे जाननी चाहिये ॥ ४५२ ॥ अर्थ-दोषकी आलोचना करनेके पश्चात् आचार्यने जो प्रायश्चित्त दिया हो उस सबको श्रद्धा पूर्वक करना चाहिये । और हृदय १बणेच्छदि (?), लमस णिच्छदि, गणच्छदि । २ ग सइ। ३ ब होति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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