Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Swami Kumar, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 461
________________ ३४२ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० ४५२दिवसपक्षमासादिविभागेन दूरतः परिवर्जन परिहारः । अथवा परिहारः द्विप्रकारः। गणप्रतिबद्धो, यत्र प्रश्रवणादिकं कुर्वन्ति मुनयः तत्र तिष्ठति पिच्छिकामप्रतः कृत्वा यतीनां वन्दनां करोति तस्य यतयः प्रतिवन्दना न कुर्वन्ति । एवं या गणे क्रिया गणप्रतिबद्धः परिहारः । यत्र देशे धर्मो न ज्ञायते' तत्र गत्वा मौनेन तपश्चरणानुष्ठानकरणमगणप्रतिबद्ध: परिहारः।। तथा श्रद्धानं तत्त्वरुचौ परिणामः क्रोधादिपरित्यागो वा श्रद्धानम् । १०। तत्त्वार्थसूत्रे नवमोपस्थापनाप्रायश्चित्तं कथितमस्ति । महावतानां मूलच्छेदन विधाय पुनरपि दीक्षाप्रापणम् उपस्थापना। एतद्दशप्रकार प्रायश्चित्तं दोषानुरूपं दातव्यमिति ॥४५१॥ अह कह' वि पमादेण य दोसो जदि एदि तं पि पयडेदि । णिहोस-साहु-मूले दस-दोस-विवज्जिदो' होहूँ ॥ ४५२॥ [छया-अथ कथमपि प्रमादेन च दोषः यदि एति तम् अपि प्रकटयति । निर्दोषसाधुमूले दशदोषविवर्जितः भवितुम् ॥] अथ अथवा यदि चेत् कथमपि प्रमादेन पञ्चदशप्रमादप्रकारेण "विकहा तह य कसाया इंदियणिद्दा तहेव पणओ य । चदु चदु पणमेगेगं होंति पमादा हु पण्णरसा ॥” इति । विकथाः ४, कषायाः ४, इन्द्रियाणि ५, निद्रा १, प्रणयः स्नेहः १ इति पञ्चदशप्रकारप्रमादाचरणेन दोषः अपराधः व्रतातिचारादिकः एति आगच्छति प्राप्नोति तमपि दोषं व्रतातिचारादिकं प्रकटयति प्रकटीकरोति । क । निर्दोषसाधुमूले निर्दोषा यथोक्ताचारचारिणः साधवः सूरिपाठकमुनयः निर्दोषाश्च ते साधवश्च निर्दोषसाधवः तेषां साधूनां सूरिप्रमुखाणां मूले पादमूले तदने इत्यर्थः । किं कर्तुम् । हो, भवितुं दशदोषवर्जितः भूत्वा, दोषाः आकम्पितादयः दश ते च दोषाश्च दशदोषाः तैर्वर्जितो भूत्वा । उक्तं च भगवत्याराधनायाम् । दशदोषरहितमालोचनं कर्तव्यम् । “आकंपिय १ अणुमाणिय २ जे दिटुं ३ बादरं ४ च सुहुमं च ५। छण्णं ६ सदाउलयं ७ बहुजण मूल प्रायश्चित्त कहते हैं । कुछ दिन, कुछ पक्ष या कुछ मासके लिये मुनिको संघसे पृथक् कर देनेको परिहार प्रायश्चित्त कहते हैं। अथवा परिहारके दो मेद हैं-गणप्रतिबद्ध और अगण प्रतिबद्ध । पीछी आगे करके मुनियोंकी वन्दना करनेपर मुनिगण उसे प्रतिवन्दना नहीं करते । यह गणप्रतिबद्धपरिहार प्रायश्चित्त है। जहाँ आचार्य आज्ञा दें वहाँ जाकर मौनपूर्वक तपश्चरण करना अगणप्रतिबद्धपरिहार प्रायश्चित्त है। तत्त्वोंमें रुचि होना अथवा क्रोध आदिका छोड़ना श्रद्धान प्रायश्चित्त है । तत्वार्थसूत्रके नौवें अध्यायमें श्रद्धानके स्थानमें उपस्थापना भेद गिनाया है। और उसका लक्षण मूल प्रायश्चित्तके समान है। अर्थात् महाव्रतोंका मूलसे उच्छेद करके फिरसे दीक्षा देना उपस्थापना प्रायश्चित्त है । यह दस प्रकार का प्रायश्चित्त (तत्त्वार्थसूत्रमें प्रायश्चित्तके नौ ही प्रकार बतलाये हैं ) दोषके अनुसार देना चाहिये ॥ ४५१ ॥ अर्थ-अथवा किसी प्रकार प्रमादके वशीभूत होकर अपने चारित्रमें यदि दोष आया हो तो निर्दोष आचार्य, उपाध्याय अथवा साधुओंके आगे दस दोषोंसे रहित होकर अपने दोषको प्रकट करे ॥ भावार्थ-पाँच इन्द्रियों, चार विकथा (स्त्रीकथा, भोजनकथा, देशकथा, राजकथा ), चार कषाय, एक निद्रा और एक स्नेह ये पन्द्रह प्रमाद हैं । इन प्रमादों के कारण साधुके आचारमें यदि दोष लगता है तो साधु अपने से बड़े साधुओंके सामने अपने दोषकी आलोचना करता है । भगवती आराधनामें भी कहा है कि आलोचना दस दोषोंसे रहित होनी चाहिये । आलोचनाके दस दोष इस प्रकार कहे हैं-आकम्पित, अनुमानित, दृष्ट, बादर, सूक्ष्म, प्रच्छन्न, शब्दाकुलित, बहुजन, अव्यक्त और तत्सेवी । आचार्यको उपकरण आदि देकर उनकी अपने ऊपर करुणा उत्पन्न करके आलोचना करना अर्थात् उपकरण १ आदर्शे तु धर्मेऽनुज्ञायते' । २ ब कहव । ३ ब दसदोसविवजिउ । ४ व होदि (१)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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