Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Swami Kumar, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 459
________________ ३४० स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० ४५१ वातखिन्नोऽपि आतापनं दुःसहसूर्यकिरण संतप्त पर्वतशिलातलेषु वैशाखज्येष्ठ मासादिषु आतापनम् आतापयोगधारणम् । उकं च । 'दिनकर किरण निकरसंतप्तशिलानिचयेषु निःस्पृहाः' इत्यादिषु ज्ञेयम् । शीतकाले पौषे माघे च नद्यादिसमुद्रादिकूले वनमध्यस्थचतुष्पथे च हिमभवं शीतम् । तथा अविरतबहलतुहिनकणवारिभिरंघ्रिपपत्रशातनैरित्यादिकं ज्ञेयम् । वर्षाकाले वनमध्य स्थित वृक्षादिमूले झंझावातादिसहनं शिखिगलकज्जला लिमलिनैरित्यादिकं मन्तव्यम् । आतपनं च शीतं च वातश्च आतापनशीतवाताः तैः खिन्नः खेदं प्राप्तः जर्जरीकृतः । अपिशब्दात् अखिन्नः । पुनः कीदृक्षः । दुःसहोपसर्गजयी दुःसहाः दुःखेन महता कष्टेन सह्यन्ते इति दुःसहाः ते च ते उपसर्गाः देवमनुष्यतिर्यगचेतनकृताः, उपलक्षणात् क्षुत्पिपासादयः परीषहाः गृह्यन्ते, तान् दुःसहोपसर्गान् परीषहांश्च जयतीत्येवंशीलः दुःसहोपसर्गजयी । तथा चारित्रसारादौ । वृक्षमूलाभ्रावकाशात । पनयोगवीरासनकुक्कुटासनपर्यङ्कासन संकुञ्चितगात्रशयन उत्तानशयन मकरमुखहस्तिशुण्डमृतकशयनैः एकपार्श्वदण्डधनुः शय्याभिः शरीरपरिखेदः कायक्लेशः । तथा प्रमृष्टस्तम्भादिकमुपाश्रित्य स्थानमुद्धीभवनं स्थापितस्थानं निश्चयमवस्थानं कायोत्सर्गः । समौ पादौ कृत्वा स्थानम्, एकेन पादेनावस्थानम्, बाहू प्रसार्यावस्थानम् इत्यादिकैः कायोत्सर्गैः शरीर क्लेशनम् । रात्रौ अशयनम् अस्नानं दन्तानामशोधनम् इत्यादिकायक्लेशनम् । किमर्थं कायक्लेशः । वर्षाशीतातपविसंस्थुलासनविषमशय्यादिषु शुभध्यानपरिचर्यार्थ दुःखोपसहनार्थं विषयसुखभङ्गार्थं शासनप्रभावनाद्यर्थं स्वकायक्लेशानुष्ठानं एतद्वाह्यं तपः षडिधं बाह्यजनानां मिथ्यादृष्टीनाम् अपि प्रकटं प्रत्याख्यातम् ॥ ४५० ॥ अथ आभ्यन्तरं षडिधं तपोविधानं व्याख्यायते । तत्र प्रायश्चित्तं तपो गाथापञ्चकेनाह दोसं ण करेदि सयं अण्णं पि ण कारएदि जो तिविहं । कुव्वाणं पिण इच्छदि' तस्स विसोही परा' होदि ॥ ४५१ ॥ [ छाया - दोषं न करोति स्वयम् अन्यम् अपि न कारयति यः त्रिविधम् । कुर्वाणम् अपि न इच्छति तस्य विशुद्धिः परा भवति ॥ ] तस्य मुनेः तपखिनः परा विशुद्धिः परा उत्कृष्टा विशुद्धिः निर्मलता प्रायश्चित्तं भवति । तद्यथा । प्रकृष्टो करके सीधा सोना, मगर के मुखकी तरह या हाथी की सूंडकी तरह अथवा मुर्देकी तरह या दण्डकी तरह निश्चल शयन करना, एक करवट से सीधा सोना या धनुषकी तरह शयन करना, इत्यादि प्रकारोंसे शरीरको कष्ट देना कायक्लेश तप है । तथा स्तम्भ वगैरह का आश्रय लेकर खड़े रहना, जहाँ रहे है वहाँ निश्चल खड़े रहना, दोनों पैरोंको समान करके कायोत्सर्ग पूर्वक खड़े रहना, एक पैरसे खड़े रहना या दोनों पैरों या बाहूको फैलाकर खड़े रहना इत्यादि प्रकारके कायोत्सर्गों से शरीरको कष्ट देना, रात्रिमें शयन न करके ध्यान लगाना, स्नान न करना, दातौन न करना, इन सबको कायक्लेश कहते हैं । वर्षामें, शीतमें, घाममें, पथरीले स्थानमें, ऊँचे नीचे प्रदेशमें भी शुभ ध्यान करनेके लिये, दुःख सहन करनेकी क्षमताके अभ्यासके लिये, विषयसुखसे मनको रोकनेके लिये तथा जिनशासनकी प्रभावना आदिके लिये इस कायक्लेश तपको किया जाता है । इन छः तपोंको बाह्य तप इस लिये कहते है कि बाह्य मिथ्यादृष्टि भी इन तपोंको करते हुए देखे जाते हैं, अथवा अन्य लोगोंको इनका प्रत्यक्ष हो जाता है ॥ ४५० || आंगे छः प्रकार के अभ्यन्तर तपका वर्णन करते हुए प्रथम ही पाँच गाथाओंसे प्रायश्चित्त तपको कहते है । अर्थ- जो तपखी मुनि मन वचन कायसे स्वयं दोष नहीं करता, अन्यसे भी दोष नहीं कराता तथा कोई दोष करता हो तो उसे अच्छा नहीं मानता, उस मुनि उत्कृष्ट विशुद्धि होती है । भावार्थ - यहाँ विशुद्धिसे आशय प्रायश्चित्तसे है । 'प्रायः' का अर्थ है प्रकृष्ट चारित्र | अतः प्रकृष्ट चारित्र जिसके हो उसे भी 'प्रायः' कहते हैं । इस लिये 'प्रायः ' माने १ ब इच्छइ । २ ल म ग परो । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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