________________
-४०३]
११. धर्मानुप्रेक्षा
३०५
व्यवहारः मानसन्मानदानपूजालाभादिलक्षणः तस्मात् विरतः विरक्तः निवृत्तः, अथवा संघयात्राप्रतिष्ठाप्रतिमाप्रासादोद्धरणादिपुण्यकरणादिरहितः । तथा तत्त्वार्थसूत्रे एवमप्युक्तं च । 'नास्ति अस्य किंचन किमपि अकिंचनो निःपरिग्रहः तस्य भावः कर्म वा आकिंचन्यं निःपरिग्रहवं निजशरीरादिषु संस्कारपरिहाराय ममेदमित्यभिसंधिनिषेधनमित्यर्थः । तदाकिचन्य चतुःप्रकार भवति । स्वस्य परस्य च जीवितलोभपरिहरणं १, स्वस्थ परस्य च आरोग्यलोभपरिहरण २, खस्य परस्य च इन्द्रियलोभपरिहरण ३, खस्य परस्य चोपभोगलोभत्यजन चेति ४ । शरीरादिषु निर्ममत्वात् परमनिवृतिमवाप्नोति । यथा यथा शरीर पोषयति तथा तथा लाम्पव्यं तजनयति, तपस्यनादरो भवति, शरीरादिषु कृताभिष्वङ्गस्य मुनेः संसारे सर्वकाल. मभिष्वङ्ग एव ॥ ४०२ ॥ अथ ब्रह्मचर्यधर्ममाख्याति
जो परिहरेदि संगं महिलाणं णेव पस्सदे रूवं ।।
काम-कहादि-गिरीहो णव-विह-बंभ हवे तस्स ॥ ४०३ ।। [छाया-यः परिहरति संग महिलानां नैव पश्यति रूपम् । कामकथादिनिरीहः नवविधब्रह्म भवेत् तस्य ॥] तस्य मुनेः नवधा ब्रह्मचर्य भवेत् , नवप्रकारैः कृतकारितानुमतगुणितमनोवचनकायैः कृत्वा स्त्रीसंग वर्जयतीति ब्रह्मचर्य स्यात् । ब्रह्मणि खस्वरूपे शुद्धबुद्धैकरूपे शुद्धचिद्रूपे परमानन्दे परमात्मनि चरति गच्छति तिष्ठत्यनुभवतीति परमानन्दकामृतरसं स्वादयति भुनक्तौति ब्रह्मचर्य भवति । तस्य कस्य । यो मुनिः महिलानां संग परिहरति, स्त्रीणां युवतीना देवीना मानुषीणां तिरश्चीनां व संग संगतिं गोष्ठी त्यजति वनितासंगासक्तशय्यासनादिकं परिहरतीति, तथा महिलाना स्त्रीणां रूप अघनस्तनवदननयनादिमनोहराङ्गादिलक्षणं रूपं नैव पश्यति नैवावलोकते। कथंभूतो मुनिः । कामकथादिनिवृत्तः कामोत्पा
शरीर वगैरहसे भी निर्ममत्व होनेसे मोक्षपदकी प्राप्ति होती है । किन्तु जो मुनि शरीरका पोषण करते हैं, उनका तपस्यामें आदर भाव नहीं रहता । अधिक क्या, शरीर आदिसे ममता रखनेवाला मुनि सदा मोहकी कीचड़में ही फंसा रहता है ॥ ४०२ ॥ आगे ब्रह्मचर्य धर्मका वर्णन करते हैं। अर्थ-जो मुनि स्त्रियोंके संगसे बचता है, उनके रूपको नहीं देखता, कामकी कथा आदि नहीं करता, उसके नवधा ब्रह्मचर्य होता है ।। भावार्थ-ब्रह्म अर्थात् शुद्ध बुद्ध आनन्दमय परमात्मामें लीन होनेको ब्रह्मचर्य कहते हैं । अर्थात् परमानन्दमय आत्माके रसका आस्वादन करना ही ब्रह्मचर्य है । आत्माको भूलकर जिन परवस्तुओंमें यह जीव लीन होता है उनमें स्त्री प्रधान है । अतः स्त्रीमात्रका, चाहे वह देवांगना हो या मानुषी हो अथवा पशुयोनि हो, संसर्ग जो छोड़ता है, उनके बीचमें उठता बैठता नहीं है, उनके जघन, स्तन, मुख, नयन आदि मनोहर अंगोंको देखता नहीं है तथा उनकी कथा नहीं करता उसीके मन वचन काय और कृत कारित अनुमोदनाके भेदसे नौ प्रकार का ब्रह्मचर्य होता है । जिन शासनमें शीलके अठारह हजार भेद कहे हैं जो इस प्रकार है-सी दो प्रकारकी होती है अचेतन और चेतन । अचेतन स्त्रीके तीन प्रकार हैं-लकड़ीकी, पत्थरकी और रंग वगैरहसे बनाई गई । इन तीन मेदोंको मन वचन काय और कृत कारित अनुमोदना इन छै से गुणा करने पर १८ भेद होते हैं । उनको पाँच इन्द्रियोंसे गुणा करने पर १८४५ - ९० भेद होते हैं। इनको द्रव्य और भावसे गुणा करने पर ९० x २ = १८० एकसौ अस्सी भेद होते हैं । उनको क्रोध, मान, माया और लोभसे गुणा करने पर १८० x ४ = ७२० भेद होते हैं । चेतन बीके मी तीन प्रकार है-देवांगना, मानुषी और तिर्यश्वनी । इनको कृत कारित अनुमोदनासे गुणा करनेपर ३४३ =
१गणघ । २ क (स) गणियत्तो, म णिअत्तो। म स ग णवहा भं।
कार्तिके. ९ Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org