Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Swami Kumar, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 442
________________ -४११] १२. धर्मानुप्रेक्षा ३२३ ता सव्वस्थ वि कित्ती ता सव्वत्थै वि हवेई वीसासो । ता सव्वं पिय भासइ ता सुद्धं माणसं कुणइ' ॥ ४३० ॥ [छाया-तावत् सर्वत्र अपि कीर्तिः तावत् सर्वत्र अपि भवति विश्वासः । तावत् सर्व प्रिय भाषते तावत् शुद्ध मानसं करोति ॥] यावत्कालं जिनधर्मः यस्य जीवस्य भवति तावत्कालं सर्वत्रापि अधोमध्योललोके तस्य जीवस्य कीर्तिः यशः महिमा ख्यातिः स्यात् । अपि पुनः ता तावत्कालं तस्य धर्मवतः पुंसः सर्वस्यापि समस्तत्रैलोक्यजनस्य, अपिशब्दात खकीयस्य, विश्वासः विश्रम्भः प्रतीतिः स्यात् । ता तावत् सर्व प्रियं हितकारकं भाषते । सर्वलोकः तं धर्मवन्तं प्रति प्रियहितमितमधुरकर्णप्रियवचनं भाषते । स धर्मवान् जीवः सर्वान् प्रति हितमितमधुरादिवाक्यं वक्तीत्यर्थः । ता तावत्काल तस्य धर्मवतः मानसं चित्तं शुद्ध निर्मलं करोति परेषां मानसं सधर्मः सन् शुद्ध करोतीत्यर्थः ॥ ४३०॥ अथ धर्ममाहात्म्य गाथाचतुष्केनाइ उत्तम-धम्मेण जुदो होदि तिरिक्खो वि उत्तमो देवो । चंडालो वि सुरिंदो उत्तम-धम्मेण संभवदि ॥ ४३१॥ [छाया-उत्तमधर्मेण युतः भवति तिर्यक् अपि उत्तमः देवः । चण्डालः अपि सुरेन्द्रः उत्तमधर्मेण संभवति ॥] तिर्यग्जीवः गोगजाश्वसिंहव्याघ्रशृगालकुर्कुरकुर्कुटदर्दुरादिप्राणी । कथंभूतः । उत्तमधर्मेण युक्तः सन् , सम्यक्त्वव्रतादिपञ्चनमस्कारदानपूजादिभावनादिलक्षणधर्मेण सहितः तिर्यक् उत्तमदेवो भवति सौधर्मवर्गाद्यच्युतवर्गनिवासी देवो जायते। सम्यक्त्वं विना व्रतादिना युक्तः तिर्यग्जीवः भवनवासी देवो व्यन्तरदेवो वा ज्योतिष्कदेवो वा जायते । अपिशब्दात् उत्तमधर्मेण युक्तः मनुष्यः उत्तमदेवो भवति । श्रावकधर्मेण सहितः गृहस्थः सौधर्माद्यच्युतान्तकल्पवासी देवः इन्द्रप्रतीन्द्रसामानिकादिको जायते । यतिधर्मेण युतः सौधर्मादिसर्वार्थसिद्धिपर्यन्तनिवासी उत्तमदेवो जायते, सकलकर्मक्षयं कृत्वा सिद्धोऽपि जायते । तथा उत्तमधर्मेण जिनोक्तधर्मेण सम्यक्त्वाणुव्रतादिलक्षणेन कृत्वा चाण्डालो मातङ्गः उत्तमदेवः सुरेन्द्रः प्रतीन्द्रसामानिको वा संभवति जायते । के के नराः । तिर्यञ्चश्व व क्वोत्कृष्टेन जायन्ते चेत्, त्रैलोक्यसारे प्रोक्तं च अर्थ-धर्मात्मा पुरुषकी सब जगह कीर्ति होती है, सब लोग उसका विश्वास करते हैं, वह सबके प्रति प्रिय वचन बोलता है, और अपने तथा दूसरोंके मनको शुद्ध करता है । भावार्थ-धर्मात्मा जीवका सब लोकोंमें यश फैल जाता है कि अमुक मनुष्य बड़ा सन्तोषी और सच्चा है, वह किसीकी वस्तुको नहीं हड़पता। इससे सब लोग उसका विश्वास करने लगते हैं । वह सबसे हितकारी मीठे वचन बोलता है, और सब लोग भी उससे मीठे वचन बोलते हैं। वह अपना मन साफ रखता है किसीका बुरा नहीं सोचता । इससे सब लोगभी उसके प्रति अपना मन साफ रखते हैं। कभी उसका बुरा नहीं चाहते । अतः धर्मात्मा जीव धर्मका पालन करनेसे केवल अपना ही भला नहीं करता किन्तु दूसरोंका भी भला करता है ॥ ४३० ।। आगे चार गाथाओंसे धर्मका माहात्म्य बतलाते हैं । अर्थ-उत्तम धर्मसे युक्त तिर्यश्च मी उत्तम देव होता है । तथा उत्तम धर्मसे युक्त चाण्डाल भी सुरेन्द्र होजाता है । भावार्थसम्यक्त्व व्रत, पंच नमस्कार मंत्र, दान, पूजा आदि उत्तम धर्मका पालन करनेसे गाय, बैल, हाथी, घोड़ा, सिंह, व्याघ्र, शृगाल, कुत्ता, मुर्गा, मेंढ़क आदि प्राणी भी मरकर उत्तम देवपदः पाते हैं । अर्थात् यदि वे सम्यग्दृष्टि होते हैं तो मरकर सौधर्म खर्गसे लेकर सोलहवें अच्युत खर्गतक जन्म लेते हैं । और यदि सम्यग्दर्शनके विना व्रतादिका पालन करते है तो मरकर भवनवासी, व्यन्तर अथवा ज्योतिष्क जातिके १लमग सव्वस्स। २लग हवह। ३ल म स ग कुणई। ४ब संभवइ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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