Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Swami Kumar, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 451
________________ ३३२ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० ४४४ तदर्थं यावत् एकसिक्थकं सिक्थम् अवशिष्टम् आहारस्याल्पतोपलक्षणमिति अवमोदर्याख्यं तपोविधानं स्यात् । किमर्थमदमोदर्यवृत्तिरनुष्ठीयते इति पृष्टे उत्तरमाह । “धम्मे वासयजोगे णाणादीए उवग्गहं कुणदि । ण य इंदियप्पदोसयरी उवमोदरितवोवृत्ती ॥" अवमोदर्यतपोवृत्तिः धर्मे क्षमादिलक्षणे दशप्रकारे आवश्यक क्रियासु समतादिषु षट्सु योगेषु वृक्षमूलादिषु ज्ञानादिके पठनपाठनादिके स्वाध्याये चारित्रे च उपग्रहं करोति न चेन्द्रियप्रद्वेषकारी । न चावमोदर्यवृत्त्या इन्द्रियाणि प्रद्वेषं गच्छन्ति किंतु वशे तिष्ठन्तीति । बह्वाशी यतिः धर्मं नानुतिष्ठति, आवश्यक क्रियाश्च न संपूर्णाः पालयति, त्रिकाल - योगं च न क्षेमेण मानयति, स्वाध्यायध्यानादिकं च न कर्तुं शक्नोति, तस्य इन्द्रियाणि च स्वेच्छाकारीणि न भवन्ति (?) । निद्राजयः वातपित्तश्लेष्मादिशान्तिश्च भवति ॥ ४४३ ॥ जो कति णिमित्तं 'मायाए मिट्ठ- भिक्ख-लाहङ्कं । अप्पं भुंजदि भोजं तस्स तवं णिष्फलं बिदियं ॥ ४४४ ॥ [ छाया - यः पुनः कीर्तिनिमित्तं मायया मिष्टं मिक्षालाभार्थम् । अल्प भुङ्क्ते भोज्यं तस्य तपः निष्फलं द्वितीयम् ॥ ] तस्य मिक्षोः द्वितीयं तपोविधानम् अवमोदर्याख्यं निष्फलं फलरहितं निरर्थकं वृथा भवेत् । तस्य कस्य । यो भिक्षुः भोजनमाहारम्, अल्पतरं स्तोकतरम् एकसिक्थमारभ्य एकत्रिंशत्कवलपर्यन्तं भुङ्क्ते वल्भते अत्ति अश्नाति । स्तोकतरं भोजनं करोति । किमर्थम् । कीर्तिनिमित्तम् । अनेन तपसा मम यशो महिमा ख्यातिः कीर्तिः प्रशंसा पूजालाभादिकं जायते इति यशो निमित्तम् । पुनः अनु च किमर्थम् अल्पं भोज्यं भुंक्ते । मायया पाषण्डेन लोकप्रतारणार्थम् । पुनः अनु च किमर्थ स्तोकं भोजनं भुङ्क्ते । मृष्टभिक्षालाभार्थं मृष्टान्नमोदकपक्वान्नशर्करादिप्राप्तिनिमित्तम् । तस्य तपो वृथेति ॥ ४४४ ॥ अथ वृत्ति परिसंख्यानं तपोविधानं प्ररूपयति 'एगादि - गिह- पमाणं किच्चा' संकप्प- कप्पियं विरसं । भोज्जं पसु व्व भुंजदि वित्ति- पमाणं तवो तस्स ॥ ४४५ ॥ छाया - एकादिगृहप्रमाणं कृत्वा संकल्पकल्पितं विरसम् । भोज्यं पशुवत् भुङ्क्ते वृत्तिप्रमाणं तपः तस्य ॥ ] तस्य भिक्षोः वृत्तिप्रमाणं वृत्तिपरिसंख्याख्यं तपोविधानं भवति । वृत्तेः प्रमाणं परिसंख्या वृत्तिपरिसंख्या । स्वकीयतपोविशेषेण 1 स्वाभाविक आहार बत्तीस ग्रास होता है और स्त्रीका स्वाभाविक आहार अट्ठाईस ग्रास होता है । अर्थात् एक हजार चावलका एक ग्रास होता है । और बत्तीस ग्रासमें मनुष्यका तथा अट्ठाईस ग्रासमें स्त्रीका पेट भर जाता है । उनमेंसे एक एक ग्रास घटाते घटाते एक ग्रास तक ग्रहण करना और उससे भी आधा ग्रास, चौथाई ग्रास या एक चावल ग्रहण करना अवमोदर्य तप है । अवमोदर्य तपके करनेसे इन्द्रियाँ शान्त रहती हैं, त्रिकाल योग शान्तिपूर्वक होता है, आवश्यक क्रियाओं में हानि नहीं होती, स्वाध्याय ध्यान वगैरह में आलस्य नहीं सताता, वात, पित्त और कफ शान्त रहते हैं, तथा निद्रापर विजय प्राप्त होती है ॥ ४४३ ॥ अर्थ- जो मुनि कीर्तिके लिये तथा मिष्ट भोजनकी प्राप्तिके लिये मायाचारसे अल्प भोजन करता है उसका अवमोदर्य तप निष्फल है ॥ भावार्थ - थोड़ा भोजन करने से लोग मेरी प्रशंसा करेंगे, पूजा करेंगे, मुझे लड्डू आदि अनेक प्रकारके मिष्टान्न खिलायेंगे, ऐसा विचार कर लोगों को ठगनेके लिये जो मुनि अल्प भोजन करता है उसका अल्प भोजन करना निरर्थक है, वह अवमोदर्य नामका तप नहीं है || ४४४ ॥ आगे वृत्तिपरिसंख्यान तपको कहते हैं । अर्थ- जो मुनि आहारके लिये जानेसे पहले अपने मनमें ऐसा संकल्प कर लेता है कि आज एक घर या दो घर तक Jain Education International १ ब मायाये मिट्ठभक्षलाद्दट्ठ, ल ग मिट्ठि भिक्खलाहिट्ठ, म लाहिट्ठ, स मिट्ठभिवख । २ ब एयादि, स एमादि । ३ छग किंवा । ४ ब तओ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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