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१२. धर्मानुप्रेक्षा
धम्मं ण मुणदि जीवो' अहवा जाणेइ कह व कट्ठेण । काउं तो वि ण सक्कदि मोह-पिसाएण भोलविदो ॥ ४२६ ॥
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[छाया-धर्म न जानाति जीवः अथवा जानाति कथमपि कष्टेन कर्तुं ततः अपि न शक्नोति मोहपिशाचेन भ्रामितः ॥] जीव आत्मा धर्म श्रावकयति मेदभिनं धर्म जिनोक्तं न जानाति तत्स्वरूपं न वेत्ति । अथवा कथमपि केनापि प्रकारेण महता कष्टेन दुःखेन धर्म जानाति चेत् तो वि तर्हि तथापि कर्तुं धर्मम् आचरितुं न शक्नोति । कीदृक् सन् जीवः । मोहपिशाचेन भ्रामितः, मोह एव पिशाचः राक्षसः प्रतारकत्वात् तेन भ्रामितः प्रतारितः छलितः मोहनीय कर्मपिशाचेन गृहीतः विकलीकृतः प्रथिल इत्यर्थः ॥ ४२६ ॥ अथ सोपहासं दृष्टान्तेन धर्मकर्तृत्वेन धर्मदुर्लभस्वं विवृणोति
जह जीवो कुणइ रई' पुत्त-कलत्तेसु काम भोगेसु' ।
तह जई जिणिंद - धम्मे तो लीलाए सुहं लहदि ॥ ४२७ ॥
[ छाया-यथा जीवः करोति रतिं पुत्रकलत्रेषु कामभोगेषु । तथा यदि जिनेन्द्रधर्मे तत् लीलया सुखं लभते ॥ ] यथा येनेव प्रकारेण उदाहरणोपन्यासे वा जीवः जन्तुः संसारी पुत्रकलत्रेषु रतिं करोति, तनुजकामिनीजनकजननीभ्रातृबन्धुमित्रभृत्यादिषु रागं प्रीतिं स्नेहं विदधाति । यथा जीवः कामभोगेषु कन्दर्पसुखेषु भोगेषु पश्चेन्द्रियाणां विषयेषु धनधान्यमन्दिरवस्त्राभरणादिषु च रतिं करोति तथा तेनैव पुत्रकलत्र कामभोगप्रकारेण यदि जिनेन्द्रधर्मे जिनवीतरागसर्वज्ञो धर्मे रतिं रागं प्रीतिं स्नेहं करोति चेत् तर्हि लीलया क्रीडया हेलामात्रेण सुखेन सुखं खर्गमोक्षोद्भवं सौख्यं लभते प्राप्नोति । तथा चोतं च । “जा दव्वे होइ मई अहवा तरुणीसु रुववंतीसु । सा जइ जिणवरधम्मे करयलमज्झट्ठिया सिद्धी ॥” इति ॥ ४२७ ॥ अथ लक्ष्म्याः वाञ्छादरः सुलभ इत्यावेदयति
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दर्शन निर्मल होता है । इन गुणोंके धारक अञ्जनचोर वगैरहकी कथा जैनशास्त्रोंमें वर्णित है वहाँसे जानलेनी चाहिये ॥ ४२५ || आगे कहते हैं कि धर्मको जानना और जानकर भी उसका आचरण करना दुर्लभ है । अर्थ- प्रथम तो जीव धर्मको जानता ही नहीं है, यदि किसी प्रकार कष्ट उठाकर 1 उसे जानता भी है, तो मोहरूपी पिशाचके चक्कर में पड़कर उसका पालन नहीं कर सकता ॥ भावार्थ - अनादिकाल से संसारमें भटकते हुए जीवको सच्चे धर्मका ज्ञान होना बहुत ही कठिन है, क्यों कि एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय और असंज्ञी पञ्चेन्द्रियकी पर्यायमें तो हित-अहितको समझने की शक्ति ही नहीं होती । सैनी पञ्चेन्द्रिय पर्याय में भी यदि नारकी या पशु हुआ तो नरकगति और पशुगतिके दुःखोंसे सदा आकुल रहता है । और यदि कदाचित् मनुष्य या देव हुआ तो प्रथम तो भोग विलासमें ही अपना जीवन बितादेता है । यदि काललब्धिके आजानेसे धर्मको जान भी लेता है। तो स्त्री-पुत्र के मोह में पड़कर धर्मका आचरण नहीं करता ॥ ४२६ ॥ आगे दृष्टान्तके द्वारा मोही जीवका उपहास करते हुए धर्मका माहात्म्य बतलाते हैं । अर्थ-जैसे यह जीव स्त्री पुत्र वगैरह से तथा कामभोग से प्रेम करता है वैसे यदि जिनेन्द्र भगवानके द्वारा कहे हुए धर्मसे प्रीति करे तो लीलामात्र से ही सुखको प्राप्त कर सकता है । भावार्थ-आचार्य कहते हैं कि स्त्री, पुत्र, माता, पिता, भाई, बन्धु, मित्र आदि कुटुंबीजनोंसे तथा धन, धान्य, मकान, वस्त्र, अलंकार आदि परिप्रहसे व कामभोग से यह जीव जितना प्रेम करता है वैसा प्रेम यदि वीतराग सर्वज्ञके द्वारा कहे हुए धर्मसे करे तो उसे
१ म जीओ। २ ब (१) म स रई । ३ व भोपसु । कार्त्तिके० ४१
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४ प जिद
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