________________
३२०
स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा
[ गा० ४२५
अनुभवति । कम् । शुद्धम् आत्मानं द्रव्यभावनोकर्ममलरहितं शुद्धं शुद्धचिद्रूपं भावयति । कीदृक्षः सन् । इन्द्रियसुखनिरपेक्षः इन्द्रियाणां स्पर्शनादीनां सुखतः शर्मणः निर्गता अपेक्षा वाञ्छा यस्य स तथोक्तः पञ्चेन्द्रियविषयवाञ्छारहितः ॥ ४२४ ॥ क्व क्व निःशङ्कितत्वमित्युक्ते चाह
सिंका पहुडि-गुणा जह धम्मे तह य देव-गुरु-तच्चे । जाहि जिण-मयादो सम्मत्त-विसोया एदे ॥ ४२५ ॥
[ छाया-निःशङ्काप्रभृतिगुणाः यथा धर्मे तथा च देवगुरुतत्त्वे । जानीहि जिनमतात् सम्यक्त्वविशोधकाः एते ॥ ] यथा येनैव प्रकारेण धर्मे उत्तमक्षमामार्दवार्जवसत्यशौच संयमतपस्त्यागा किंचन्यब्रह्मचर्यलक्षणे धर्मे दशप्रकारे व्यवहारनिश्चयरत्नत्रये धर्मे वा निःशङ्काप्रभृतिगुणा इति । निःशङ्कित १ निःकांक्षित २ निर्विचिकित्सा ३ मूढदृष्टि ४ सोपगूहन ५ स्थिति - करण ६ वात्सल्य ७ प्रभावनागुणाः भवन्ति । तथा तेनैव प्रकारेण देवगुरुतत्त्वेषु तान् गुणान् जानीहि । देवे अष्टादशदोषरहितवीतरागसर्वज्ञदेवेऽष्टौ निःशङ्कतादिगुणान् त्वं भो भव्य जानीहि । तथा गुरौ निर्ग्रन्थाचार्ये चतुर्विंशतिपरिग्रहपरित्यक्तदिगम्बरगुरौ तान् निःशङ्कितायष्टौ गुणान् जानीहि । तथा तत्त्वेषु जीवाजीवासवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षेषु सप्तसु पुण्यपापद्वयसहित नवपदार्थेषु जीवाजीवधर्माधर्म कालाकाशेषु षट्सु द्रव्येषु पश्चास्तिकायेषु व्रततपः संयमसम्यक्त्वादिषु च निःशङ्किताद्यष्टगुणान् जानीहि । किं बहुना जिनोक्तसर्वपदार्थेषु शङ्कादयो न कर्तव्याः । जिनोकै काक्षरार्थपद श्लोकादिषु शङ्कादिकं करोति तदा मिथ्यादृष्टिः स्यात् । कुतः । जिनमतात् जिनवचनात् सर्वज्ञवीतरागोपदेशात् जिनशासनमाश्रित्य । यतः एते निःशङ्कितादयो गुणाः सम्यक्त्वविशुद्धिकराः सम्यग्दर्शनस्य विशुद्धिकरा निर्मलकराः । अत्राजन चोरादिकथा ज्ञातव्याः ॥ ४२५ ॥ युग्मम् ॥ अथ धर्मस्य ज्ञातृत्वकर्तृत्वदुर्लभत्वं व्यनक्ति—
आत्माको भाता है उसीके निःशंकित, अमूढ़ दृष्टि, प्रभावना नामके गुण हो सकते हैं; क्यों कि जिसको आत्मा के रूप में सन्देह है और जिसकी दृष्टि मूढ़ है वह अपनी व आत्माकी वारम्वार भावना नहीं कर सकता। तथा जिसके इन्द्रियसुखकी चाह नहीं है उसीके निःकांक्षित गुण होता है, अतः जिसके इन्द्रिय सुखकी चाह है उसके मिःकांक्षित गुण नहीं होता । इस तरह उक्त तीन विशेषणोंवालेके ही आठों
होते हैं ॥ ४२४ ॥ आगे बतलाते हैं कि निःशंकित आदि गुण कहाँ कहाँ होने चाहिये । अर्थ-ये निःशंकित आदि आठ गुण जैसे धर्मके विषयमें कहे वैसे ही देव गुरु और तत्त्व के विषय में मी जैन आगमसे जानने चाहियें । ये आठों गुण सम्यग्दर्शनको विशुद्ध करते हैं । भावार्थ - ऊपर उत्तम क्षमा आदि दस धर्मोके विषय में निःशंकित आदि गुणोंको बतलाया है । आचार्य कहते हैं कि उसीप्रकार अठारह दोष रहित वीतराग सर्वज्ञ देवके विषयमें, चौबीस प्रकारके परिग्रहसे रहित दिगम्बर गुरुओं के विषय में, तथा जिन भगवानके द्वारा कहे हुए जीव अजीव आस्रव बन्ध संवर निर्जरा मोक्ष इन सात तत्त्वोंमें और इन्हीमें पुण्य पापको मिलानेसे हुए नौ पदार्थोंमें व जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छ: द्रव्योंमें भी निःशंकित आदि गुणोंका होना जरूरी है । अर्थात् सम्यग्दृष्टीको देव गुरु और तत्त्व विषयमें शंका नहीं करनी चाहिये, उनकी यथार्थश्रद्धा के बदले में इन्द्रिय सुखकी कांक्षा ( चाह ) नहीं करनी चाहियें, उनके विषयमें ग्लानिका भाव नहीं रखना चाहिये, उनके विषय में अपनी दृष्टि मूढताको लिये हुए नहीं होनी चाहिये, उनके दोषों को दूर करनेका प्रयत्न करना चाहिये, उनके विषय में अपना मन विचलित होता हो तो उसे स्थिर करना चाहिये, उनमें सदा वात्सल्य भाव रखना चाहिये, और उनके महत्त्वको प्रकट करते रहना चाहिये । इन गुणोंको धारण करने से सम्यगु
१ ग तह देव । २ ब विसोहिया ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org