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स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा .. [गा० ३९२पञ्चक्खाणं चउन्विहं विहिगा। गहिदूण तदो सवं आलोचेजो पयत्तेण ॥ १०॥ एमेव होदि बिदिओ णवरि विसेसो कुगे पालन करते हैं तो वे संयमी कहे जाते हैं । और बिना समितियोंके वे केवल विरत हैं। जैसा कि वर्गणाखण्डके बन्धाधिकारमें लिखा है-'संयम और विरतिमें क्या भेद है ? समिति सहित महाव्रतों और अणुव्रतोंको संयम कहते हैं और संयमके बिना महाव्रत और अणुव्रत विरति कहे जाते हैं ।' उक्त ग्यारह प्रतिमाओंमेंसे ( सब श्रावकाचारोंमें दार्शनिकसे लेकर उद्दिष्टत्याग तक ग्यारह प्रतिमाएं ही बतलाई है ) दर्शनिकसे लेकर शुरु की छ: प्रतिमावाले श्रावक जघन्य होते हैं, उसके बाद सातवीं, आठवीं और नौवीं प्रतिमावाले श्रावक मध्यम होते हैं । और अन्तिम दो प्रतिमाधारी श्रावक उत्कृष्ट होते हैं।' चारित्रसारमें श्रावक धर्मका विस्तारसे वर्णन किया है जिसे संस्कृत टीकाकारने उद्धृत किया है । "अतः वह संक्षेपमें दिया जाता है-गृहस्थलोग तलवार चलाकर, लेखनीसे लिखकर, खेती या व्यापार आदि करके अपनी आजीविका चलाते हैं, और इन कार्योंमें हिंसा होना संभव है अतः वे पक्ष, चर्या और साधनके द्वारा उस हिंसाको दूर करते हैं । अहिंसारूप परिणामोंका होना पक्ष है । गृहस्थ धर्मके लिये, देवताके लिये, मंत्र सिद्ध करनेके लिये, औषधके लिये, आहारके लिये और अपने ऐशआरामके लिये हिंसा नहीं करूंगा । यही उसका अहिंसारूप परिणाम है । तथा जब वह गार्हस्थिक कार्योंमें हुई हिंसाका प्रायश्चित्त लेकर सब परिग्रहको छोड़नेके लिये उद्यत होता है और अपना सब घरद्वार पुत्रको सौंपकर घर तक छोड़ देता है उसे चर्या कहते हैं । और मरणकाल उपस्थित होनेपर धर्मध्यानपूर्वक शरीरको छोड़नेका नाम साधन है । इन पक्ष, चर्या और साधनके द्वारा हिंसा आदिसे संचित हुआ पाप दूर हो जाता है । जैनागममें चार आश्रम अथवा अवस्थायें कही है-ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और भिक्षुक । ब्रह्मचारी पाँच प्रकारके होते हैं-उपनय ब्रह्मचारी, अवलम्ब ब्रह्मचारी, दीक्षा ब्रह्मचारी, गूढ ब्रह्मचारी, और नैष्ठिक ब्रह्मचारी। जो ब्रह्मचर्यपूर्वक समस्त विद्याओंका अभ्यास करके गृहस्थाश्रम स्वीकार करते हैं वे उपनय ब्रह्मचारी हैं । क्षुल्लक रूपसे रहकर आगमका अभ्यास करके जो गृहस्थाश्रम स्वीकार करते हैं वे अवलम्ब ब्रह्मचारी हैं। बिना किसी वेशके आगमका अभ्यास करके जो गृहस्थाश्रम स्वीकार करते हैं वे अदीक्षा ब्रह्मचारी हैं। जो कुमारश्रमण विद्याभ्यास करके बन्धुजन अथवा राजा आदिके कारण अथवा स्वयं ही गृहस्थधर्म स्वीकार करते हैं वे गूढ ब्रह्मचारी हैं। जो चोटी रखते हैं, भिक्षा भोजन करते हैं और कमरमें रक्त अथवा सफेद लंगौटी लगाते हैं वे नैष्ठिक ब्रह्मचारी हैं । इज्या, वार्ता, दान, स्वाध्याय, संयम और तप ये गृहस्थके षट्र कर्म हैं । अर्हन्त देवकी पूजाको इज्या कहते हैं । उसके पाँच भेद हैं-नित्यपूजा, चतुर्मुखपूजा, कल्पवृक्षपूजा, अष्टाहि कपूजा
और इन्द्रध्वजपूजा । प्रति दिन शक्तिके अनुसार अपने घरसे अष्ट द्रव्य ले जाकर जिनालयमें जिनेन्द्र देवकी पूजा करना, चैत्य और चैत्यालय बनवाकर उनकी पूजाके लिये गांव जमीन जायदाद देना तथा मुनिजनोंकी पूजा करना नित्यपूजा है। मुकुटबद्ध राजाओंके द्वारा जो जिनपूजा की जाती है उसे चतुर्मुख पूजा कहते हैं, क्यों कि चतुर्मुख बिम्ब विराजमान करके चारोंही दिशामें की जाती है । बड़ी होनेसे इसे महापूजा भी कहते हैं। ये सब जीवोंके कल्याणके लिये की जाती है इसलिये इसे सर्वतोभद्र भी कहते हैं । याचकोंको उनकी इच्छानुसार दान देनेके पश्चात् चक्रवर्ती अर्हन्त भगवानकी
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