Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Swami Kumar, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 415
________________ २९६ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० ३९८धावयति प्रक्षालयति । केन । समसंतोषजलेन, समः तृणरत्नकाञ्चनशत्रुमित्रष्टानिष्टवस्तुसाम्यं समता संतोषः शुभाशुभेषु सर्वत्र माध्यस्थं समश्च संतोषश्च समसंतोषौ तावेव जलमुदकं तेन धोवति शुद्धं निर्मलं विदधाति । स मुनिः कीदृक्षः । भोजनगृद्धिरहितः भोजनम् आहारस्य उपलक्षणात् कनकयुवतिगजाश्ववस्त्रादीनां ग्रहणं तस्य अतिगृद्धिः अत्याकाङ्क्षा वाञ्छा तया विहीनः । शौचं लोभविनिर्मुक्तमित्युक्तत्वात् । तथाहि प्रकर्षप्राप्तलोभनिवृत्तिः शौचमित्युच्यते । शुच्याचारं नरमिहापि सन्मानयन्ति, सर्वे दानादयश्च गुणास्तमधितिष्ठन्ति, लोभभावनाकान्ते हृदये नावकाशं लभन्ते गुणाः । स च लोभः जीवितारोग्येन्द्रियोपभोगविषयभेदाचतुर्विधः । स्वपरविषयत्वात स प्रत्येकं द्विधा भिद्यते। खजीवितलोभः १ परजीवितलोभः २ खारोग्यलोभः ३ परारोग्यलोभः ४ खेन्द्रियलोभः ५ परेन्द्रियलोभः ६ खोपभोगलोभः ७ परोपभोगलोभश्चेति ८ । अतस्तन्निवृत्तिलक्षणं शौचं चतुर्विधमिति ॥ ३९७ ॥ अथ सत्यधर्ममाह जिण-वयणमेव भासदि तं पालेदुं असक्कमाणो वि । ववहारेण वि अलियं ण वददि' जो सच्चवाई सो ॥ ३९८ ॥ [छाया-जिनवचनमेव भाषते तत् पालयितुम् अशक्नुवानो अपि। व्यवहारेण अपि अलीकं न वदति यः सत्यवादी सः॥] स मुनिः सत्यवादी सत्यं वदत्येवंशीलः सत्यवादी सत्यधर्मपरिणतो भवेत् । स कः । यः जिनवचनमेव भाषते जिनस्य वचनं द्वादशाङ्गरूपं जैनसिद्धान्तशास्त्रं वक्ति ब्रूते । एवकारणेन न सांख्यसौगतभट्टवैशेषिकचार्वाकादिपरिकल्पितं नैव वक्ति। तत् जिनवचनं पालयितुं रक्षितुं ज्ञातुं वा, ये गत्यर्थास्ते ज्ञानार्था इति पालधातुः ज्ञानार्थेऽपि वर्तते, अशक्यमानोऽपि अशक्तोऽपि असमर्थोऽपि अपिशब्दात् न केवलं शक्तोऽपि, अपि न वक्ति न वदति न भाषते । किं तत् । अलीकं मृषावचनम् असत्यं न वक्ति। केन।व्यवहारेण दत्तिप्रतिग्रहभोजनादिव्यापारेण,अथवा पूजाप्रभावनाद्यर्थम् अलीकवचनं न वदति । अपिशब्दात् न केवलम् अव्यापारेण । तथाहि सत्सु प्रशस्तेषु दिगम्बरेषु महामुनिषु तदुपासकेषु च श्रेष्ठेषु लोकेषु साधुवचनं समीचीनवचनं यत् तत्सत्यमित्युच्यते । सन्तः प्रव्रज्यां प्राप्ताः तद्भक्ताः वा ये वर्तन्ते तेषु यद्वचनं साधु तत्सत्यम् । तथा अतः लोभका त्यागरूप शौचधर्म पालना चाहिये ॥ ३९७ ॥ अब सत्यधर्म को कहते हैं। अर्थजैन शास्त्रोंमें कहे हुए आचार को पालनेमें असमर्थ होते हुए भी जो जिन वचनका ही कथन करता है, उससे विपरीत कथन नहीं करता, तथा जो व्यवहारमें भी झूठ नहीं बोलता, वह सत्यवादी है ॥ भावार्थ-जैन सिद्धान्तमें आचार आदिका जैसा स्वरूप कहा है, वैसा ही कहना, ऐसा नहीं कि जो अपनेसे न पाला जाये, लोक निन्दाके भयसे उसका अन्यथा कथन करे, तथा लोक व्यवहारमें भी सदा ठीक ठीक वरतना सत्य धर्म है। सत्यवचनके दस भेद हैं-नाम सत्य, रूप सत्य, स्थापना सत्य, प्रतीत्य सत्य, संवृति सत्य, संयोजना सत्य, जनपद सत्य, देश सत्य, भाव सत्य और समय सत्य । सचेतन अथवा अचेतन वस्तुमें नामके अनुरूप गुणोंके न होनेपर भी लोक व्यवहार के लिये जो इच्छानुसार नामकी प्रवृत्ति की जाती है उसे नाम सत्य कहते हैं जैसे कि मनुष्य अपने बच्चों का इन्द्र आदि नाम रख लेते हैं । मूल वस्तुके न होते हुए भी वैसा रूप होनेसे जो व्यवहार किया जाता है उसे रूप सत्य कहते हैं जैसे पुरुषके चित्रमें पुरुष के चैतन्य आदि धर्मों के न होने पर भी पुरुषकी तरह उसका रूप होनेसे चित्रको पुरुष कहते है । मूल वस्तुके न होते हुए भी प्रयोजनवश जो किसी वस्तुमें किसीकी स्थापना की जाती है उसे स्थापना सत्य कहते हैं। जैसे पाषाणकी मूर्तिमें चन्द्रप्रभकी स्थापना की जाती है। एक दूसरेकी अपेक्षासे जो वचन कहा जाता है वह प्रतीत्य सत्य है । जैसे अमुक मनुष्य लम्बा है। जो वचन लोकमें प्रचलित १ब जो ण वददि। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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