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१२. धर्मानुप्रेक्षा
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कूलवृत्तिः प्रश्नखाध्यायवाचनाकथाविज्ञापनादिषु प्रतिपत्तिकुशला देशकालभावावबोधनिपुणा आचार्यानुमतचारिणी,तन्मूलाः सर्वसंपदः, सैव भूषा पुरुषस्य, सैव नौः संसारसमुद्रोत्तरणे ३।ईर्यापथशुद्धिः नानाविधजीवस्थानानां योनीनाम् आश्रयाणामवबोधात् जनितप्रयत्नपरिहृतजन्तुपीडा ज्ञानादित्यखेन्द्रियप्रकाशनिरीक्षितदेशगामिनी द्रुतविलम्बितसंभ्रान्तविस्मितलीलाविकारदिगवलोकनादिदोषविरहितगमना, तस्यां सत्यां संयमः प्रतिष्ठितो भवति विभव इव सुनीतौ ४ । भिक्षाशुद्धिः परीक्षितोभयप्रचारा प्रभृष्टपूर्वापरखाङ्गदेशविधाना आचारसूत्रोक्तकालदेशप्रकृतिप्रतिपत्तिकुशला लाभालाभमानापमानरामानमनोवृत्तिः गीतनृत्यवाद्योपजीविप्रसूतिकामृतकपण्याङ्गनापापकर्मदीनानाथदानशालायजनविवाहादिमङ्गलगेहपरिवर्जनपरी चन्द्रगतिरिव हीनाधिकगृहा विशिष्टोपस्थाना लोकगर्हितकुलपरिवर्जनोपलक्षिता दीनवृत्तिविगमा प्रासुकाहारगवेषणसावधाना आगमविहितनिरवद्याशनपरि प्राप्तप्राणयात्राफला तत्प्रतिबद्धा हि चरणसंपद् गुणसंपदिव साधुजनसेवानिबन्धना, सा भिक्षा लाभालाभयोः सरसविरसयोश्च समसंतोषवद्भिः भिक्षेति भाष्यते ५ । भिक्षाशुद्धिपरस्य मुनेरशनं पञ्चविधं भवति, गोचाराक्षम्रक्षणोदराग्निप्रशमनभ्रमराहारश्वभ्रपूरणनामभेदेन । यथा सलीलसालंकारवर युवतिभिरुपनीयमाने घासे गौर्न तदङ्गतत्सौन्दर्यनिरीक्षणपरस्तृणमेवात्ति यथा वा तृणलवं नानादेशस्थं यथालाभमभ्यवहरति न योजनासंपदमपेक्षते तथा भिक्षुरपि भिक्षापरिवेषकजनमृदुललिततनुरूपवेषाभिलाषविलोकननिरुत्सुकः शुष्कद्रवाहारयोजनाविशेषं वानवेक्षमाणो यथागतमश्नातीति गौरिव चारो गोचार इति कथ्यते । तथा गवेषणेति च । यथा शकटीं रत्नभारपूर्णा येन केनचित्स्नेहेन अक्षलेपं कृत्वा अभिलषितदेशान्तरं वणिग् नयति तथा मुनिरपि गुणरत्नभरितां तनुशकटीम् अनवद्यभिक्षायुरक्षम्रक्षणेनाभिप्रेतसमाधिपत्तनं
पहले अपने शरीरकी प्रतिलेखना करके, आचारांगमें कहे हुए काल, देश, स्वभावका विचार करे, तथा भोजनके मिलने न मिलनेमें, मान और अपमानमें समान भाव रक्खे और आगे लिखे घरोंमें भोजनके लिये न जावे । गा बजा कर तथा नाच कर आजीविका करनेवाले, जिस घरमें प्रसूति हुई हो या कोई मर गया हो, वेश्याके घर, जहाँ पापकर्म होता हो, दीन और अनाथोंके घर, दानशालामें, यज्ञशालामें, जहाँ विवाह आदि मांगलिक कृत्य हो रहे हों, इन घरोंमें भोजनके लिये न जाये, जो कुल लोकमें बदनाम हों वहाँ भी भोजनके लिये न जाये, धनवान और निर्धनका भेद न करे, दीनता प्रकट न करे, प्रासुक आहारकी खोजमें सावधान रहे, शास्त्रोक्त निर्दोष आहारके द्वारा जीवन निर्वाह करने पर ही दृष्टि हो । इसका नाम भिक्षा शुद्धि है । जैसे गुणसम्पदा साधु जनोंकी सेवा पर निर्भर करती है वैसे ही चारित्ररूपी सम्पदा भिक्षाशुद्धिपर निर्भर है । भोजनके मिलने और न मिलनेपर अथवा सरस या नीरस भोजन मिलनेपर भिक्षुको समान संतोष रहता है, इसीसे इसे भिक्षा कहते हैं । इस भिक्षाके पाँच नाम हैं । गोचार, अक्षम्रक्षण, उदराग्नि प्रशमन, भ्रमराहार और गर्तपूरण । जैसे वस्त्राभूषणसे सुसज्जित सुन्दर स्त्रीके द्वारा घास डालनेपर गौ उस स्त्रीकी सुन्दरताकी ओर न देखकर घासको ही खाती है, वैसे ही भिक्षु भी भिक्षा देनेवाले स्त्रीपुरुषोंके सुन्दर रूपकी ओर न देखकर जो रूखा, सूखा अथवा सरस आहार मिलता है उसे ही खाता है, इसीसे इसे गोचार या गोचरी कहते हैं । जैसे व्यापारी मालसे भरी हुई गाडीको जिस किसीभी तेलसे औंघ कर अपने इच्छित स्थानको ले जाता है वैसे ही मुनि भी गुणरूपी रत्नों से भरी हुई इस शरीररूपी गाड़ीको निर्दोष भिक्षारूपी तेलसे औंधकर समाधिरूपी नगर तक ले जाता है । इस लिये इसे अक्षम्रक्षण कहते हैं। जैसे गृहस्थ अपने भण्डारमें लगी हुई आगको गदले अथवा निर्मल पानीसे बुझाता है वैसे ही मुनि भी उदराग्नि ( भूखकी ज्वालाको ) सरस अथवा नीरस कैसा भी आहार मिल जाता है उसीसे शान्त करता है इससे इसे
१ आदर्श तु 'मंगलमेव परि” इति पाठः।
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