Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Swami Kumar, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 396
________________ -३६४] १२. धर्मानुप्रेक्षा २७७ निर्जरयति । कम् । कर्मलेशम् अपि एकदेशेन कर्मनिर्जराम् अपिशब्दात् साकल्येन न कर्मनिर्जरां करोति, लेशमात्रकर्म न निर्जरतीत्यर्थः । स कः । य आरम्भं करोति, आरम्भ गृहहट्टव्यापारक्रयविक्रयकृषिमषिवाणिज्याद्युत्थम् आरम्भं करोति यः स लवलेशमात्रकर्म न निर्जरति । कुतः । मोहात् मोहनीयकर्मोद्रेकात् , ममत्वपरिणामाद्वा रागद्वेषपरिणामाद्वा । किं कुर्वन् । उपवासं प्रोषधं कुर्वन् विदधानः । प्रोषधप्रतिमाधारी अष्टम्यां चतुर्दश्यां च प्रोषधोपवासमङ्गीकरोतीत्यर्थः । व्रते तु प्रोषधोपवासस्य नियमो नास्तीति । तथा वसुनन्दिसिद्धान्तिना प्रोक्तं च । “उत्तममज्झमजहणं तिविहं पोसहविहाणमुद्दिटुं । सगसत्तीए मासम्मि चउसु पव्वेसु कायव्वं १॥ सत्तमितेरसि दिवसम्मि अतिहि जणभोयगावसाणम्मि । भोत्तण भुंजणिज तत्थ वि काऊण मुहसुद्धिं ॥२॥ पक्खालिदूण बयणं करचलणे णियमिदूण तत्थेव । पच्छा जिगिंदभवणं गंतूण जिणं णमंसित्ता ॥३॥ गुरुपुरदो किरियम्मं वंदणपुवं कमेण कादूण । गुरुसक्खियमुववासं गहिऊग चउव्विहं विहिगा ॥४॥ वायणकहाणुपेहणसिकात्रावणचिन्तगोवओगेहिं । णेदूण दिवससेसं अवरण्हियवंदणं किच्चा ॥५॥रयणिसमयम्हि ठिचा काउस्सग्गेण णिययसत्तीए । पडिलेहिदूण भूमि अप्पपमाणेग संथारं ॥६॥णेदूण किंचि रत्तिं सुइदूण जिगालए णियघरे वा । अहवा सयलं रत्तिं काउस्सग्गेण णेदूण ॥ ७॥ पञ्चूसे उद्वित्ता वंदगविहिणा जिणं णमंसित्ता । तह दव्वभावपुज जिणसुदसाहूण काऊण ॥८॥ पुव्वुत्तविहाणेणं दियह रत्तिं पुणो वि गमिदूण । पारणदियहम्मि पुणो पूर्य काऊण पुर्व व ॥९॥ गंतूण णिययगेहं अतिहिविभागं च तत्थ काऊणं । जो भुंजा तस्स फुडं पोसहविहिमुत्तमं होदि ॥१०॥ जह उक्कटुं तह मज्झिमं पि पोसहविहाणमुट्टिं। णवर विसेसो सलिलं छंडित्ता वज्जए सेसं ॥११॥ मुणिऊण गुरुवकजं सावजविवज्जियं णियारंभं । जदि कुगदि तं पि कुज्जा सेसं पुव्वं व णायव्वं ॥ १२ ॥ आयंबिलणि व्वियडी एयट्ठाणं च एयभत्तं च । जं कीरदि तं णेयं जहण्णयं पोसहविहाणं ॥१३॥ सिण्हाणुवट्टणगंधधम्मिलकेसादिदेहसंकप्पं । अण्णं पि रागहेदुं विवजए पोसहदिणम्मि ॥१४॥" इत्यनुप्रेक्षायां प्रोषधप्रतिमा, पञ्चमो धर्मः ५॥३७८॥ अथ सचित्तविरतिप्रतिमां गाथाद्वयेन भणीति दुकानका काम धाम नहीं छोडता अर्थात् विषय कषायको छोड़े बिना केवल आहार मात्र ही छोडता है वह उपवास करके केवल अपने शरीरको सुखाता है, कोंकी निर्जरा उसके लवमात्र भी नहीं होती। यहां इतना विशेष जानना कि व्रत प्रतिमा में जो प्रोषधोपवास व्रत बतलाया है उसमें प्रोषधोपवासका नियम नहीं है । आचार्य वसुनन्दि सैद्धान्तिकने प्रोषधोपवासका वर्णन इस प्रकार किया है-"उत्तम मध्यम और जघन्यके भेदसे तीन प्रकारका प्रोषधोपवास कहा है जो एक महिनेके चार पर्वोमें अपनी शक्तिके अनुसार करना चाहिये । सप्तमी और तेरसके दिन अतिथिको भोजन देकर स्वयं भोजन करे और भोजन करके अपना मुँह शुद्ध करले ॥ फिर अपने शरीरको धोकर और हाथ पैरको नियमित करके जिनालयमें जाकर जिन भगवानको नमस्कार करे ॥ फिर वन्दनापूर्वक सामायिक आदि कृतिकर्म करके गुरुकी साक्षीपूर्वक चार प्रकारके आहारको त्यागकर उपवासको स्वीकार करे । शास्त्र वांचना, धर्मकथा करना, अनुप्रेक्षाओंका चिन्तना, दूसरोंको सिखाना आदि उपयोगोंके द्वारा शेष दिन बिताकर संध्याके समय सामायिक आदि करे ॥रात्रिके समय भूमिको साफ करके उसपर अपने शरीरके बराबर संथरा लगाकर अपनी शक्तिके अनुसार कायोत्सर्ग करे॥कुछ रात कायोत्सर्गपूर्वक बिताकर जिनालयमें या अपने घर शयन करे । अथवा सारी रात कायोत्सर्गपूर्वक बितावे ॥ प्रातःकाल उठकर विधिपूर्वक जिनवन्दना करके देव शास्त्र और गुरुकी द्रव्यपूजा और भावपूजा करे ॥ फिर शास्त्रोक्त विधिके अनुसार वह दिन और रात बिताकर पारणाके दिन पहलेकी ही तरह पूजा करे ॥ फिर अपने घर जाकर अतिथियोंको भोजन कराके खयं भोजन करे । इस प्रकार जो करता है उसके उत्तम प्रोषधोपवासं होता है। उत्कृष्ट प्रोषधोपवासकी जो विधि है वही मध्यम प्रोषधोपवासकी है। केवल इतना अन्तर है कि मध्यम उपवासमें पानीके सिवाय अन्य सब वस्तुओंका त्याग होता है ।। अत्यन्त आवश्यकता जानकर यदि कोई ऐसा कार्य करना चाहे जिसमें सावद्यका योग न हो और न आरम्भ करना पड़ता हो तो कर सकता है । शेष बातें उत्कृष्ट प्रोषधोपवासकी तरह जाननी चाहिये ॥ चावल या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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