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स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा
सच्चित्तं पत्ते - फलं छली मूलं च किसलयं बीयं ।
जो ण य भक्खदि णाणी सचित्त-विरदो हवे सो दु || ३७९ ॥
[ छाया - सचित्तं पत्रफलं त्वक् मूलं च किसलयं बीजम् । यः न च भक्षयति ज्ञानी सचित्तविरतः भवेत् स तु ॥ ] सोsपि प्रसिद्धः अपि शब्दात् न केवलमप्रेसरः, श्रावकः सचित्तविरतः सचित्तेभ्यः जलफलादिभ्यो विरतः विगतरागः निवृत्तः भवेत् यः ज्ञानी भेदविज्ञानविवेकगुणसंपन्नः श्रावकः न भक्षते न अश्नाति । किं तत् । सचित्तं चित्तेन चैतन्येन आत्मना जीवेन सह वर्तमानं सचित्तम् । किं तत् । पत्रफलं सचित्त नागवल्ली दललिम्बपत्रसर्षपचगका दिपत्रधत्तूरादिदलपत्रशाकादिकं नाश्नाति फलं सचित्तचिर्भटकर्कटिकादिकूष्माण्ड नीबूफलदाडिमबीजपूरापक्काम्रकदलीफलादिकम्, छल्ली वृक्षवल्यादिसत्चित्तत्वक् नात्ति, मूलम् आर्द्रकादिलिम्बादिवृक्षवल्ली वनस्पतीनां मूलं न खादति, किसलयं पलवं लघुपलवं कुडालं नात्ति, बीजं सचित्तचणकमुद्गतिल वर्जरिकामाषाढकीजीरककुवेरराजीगोधूमव्रीह्यादिकं न भक्षते । उक्तं च । 'मूलफलशाकशाखा करीरकन्दप्रसून बीजानि । नामानि योsत्ति सोऽयं सचित्तविरतो दयामूर्तिः ॥ प्रासुकं कतिधेत्युच्यते । ' तत्तं पक्कं सुक्कं अंबिललवणेहिं मीसियं दव्वं । जं जंतेण य छिष्णं तं सव्वं पासुयं भणियं ॥ इति ॥ ३७९ ॥
जो ण य भक्खेदि सयं तस्स ण अण्णस्स जुज्जदे दाउ ।
भुत्तस्स भोजिदस्स हि णत्थि विसेसो जंदो को वि ॥ ३८० ॥
[ गा० ३७९
[ छाया-यः न च भक्षयति स्वयं तस्य न अन्यस्मै युज्यते दातुम् । भुक्तस्य भोजितस्य खलु नास्ति विशेषः यतः कः अपि ॥ ] च पुनः, स्वयम् आत्मना यः सचित्तं जलफलदलमूलकिसलयवीजादिकं न भक्षयति न अत्ति तस्य सचित्तविरतश्रावकस्य अन्यस्मै पुरुषाय सचित्तं वस्तु भोक्तुं दातुं न युज्यते, दातुं युक्तं न भवति । यतः यस्मात् कारणात् स्वयं भुक्तस्य स्वयं सचित्तादिकं भोजनं कुर्वतः सचित्तादिकं भोजयिष्यतः परान् भोजनं कारयिष्यतः सतः अन्यान्, हि स्फुटम्, कोsपि विशेषो न, उभयत्र सदोषत्वात् ॥ ३८० ॥
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चावलका माण्ड लेना, या गोरस, इक्षुरस, फलरस और धान्यरस से रहित कोई ऐसी वस्तु लेना जो विकार पैदा न करे, या एक वस्तु खाना अथवा एक बार भोजन करना जघन्य प्रोषध है | प्रोषधके दिन स्नान, उबटन, इत्र, फुलेल, केशोंका संस्कार, शरीरका संस्कार तथा अन्य भी जो रागके कारण हैं, उन्हें छोड़ देना चाहिये ।" इस प्रकार पाँचवी प्रोषध प्रतिमाका वर्णन समाप्त हुआ ||३७८|| अब दो गाथाओं सचित्त विरत प्रतिमाको कहते हैं । अर्थ- जो ज्ञानी श्रावक सचित्त पत्र, सचित्त फल, सचित्त छाल, सचित्त मूल, सचित्त कोंपल और सचित्त बीजको नहीं खाता वह सचित्तविरत है ॥ भावार्थजो ज्ञानी श्रावक सचित्त अर्थात् जिसमें जीव मौजूद हैं ऐसे नागवल्लीके पत्तोंको, नींबूके पत्तोंको, सरसों और चनेके पत्तोंको, धतूरेके पत्तोंको और पत्तों की शाक वगैरहको नहीं खाता, सचित्त खरबूजे, ककड़ी, पेठा, नीम्बु, अनार, बिजौरा, आम, केला आदि फलोंको नहीं खाता, वृक्षकी सचित्त छालको नहीं खाता, सचित्त अदरक वगैरह मूलोंको नहीं खाता, या वनस्पतियोंका मूल यदि सचित्त हो तो नहीं खाता, छोटी छोटी ताजी नई कोंपलोको नहीं खाता, तथा सचित्त चने, मूंग, तिल, उड़द, अरहर, जीरा, गेहूं, जौ वगैरह बीजोंको नहीं खाता, वह सचित्त त्यागी कहा जाता है । कहा भी है- "जो दयालु श्रावक मूल, फल, शाक, शाखा, कोंपल, वनस्पतिका मूल, फूल और बीजोंको अपक्क दशामें नहीं खाता वह सचित्तविरत है । " ॥ ३७९ ॥ अर्थ - तथा जो वस्तु वह स्वयं नहीं खाता उसे दूसरोंको देना भी उचित नहीं है । क्यों कि खानेवाले और खिलानेवाले में कोई अन्तर नहीं है । भावार्थ- सचित्त विरत श्रावकको चाहिये कि जिस सचित्त जल, फल, पत्र, मूल, कोंपल बीज वगैरहको वह स्वयं नहीं खाता उसे अन्य पुरुषको भी खानेके लिये नहीं देना चाहिये । तभी सचित्त त्यागवत पूर्ण रूप से पलता है । क्यों कि स्वयं खाना और अन्यको खिलाना एक ही है । दोनों ही सदोष हैं ॥ ३८० ॥
१ग सचित्तं पत्ति | २ ल स ग बीजं, म बीअं । ३ ब जो यणय । ४ ल म सग सचित्तविरओ ( उ १) हवे सो वि। ५ 'निंब' इत्यपि पाठः । ६ 'कुंपलं' इत्थपि पाठः । ७ ल म स ग तदो ।
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