Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Swami Kumar, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 371
________________ २५२ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० ३४७व्यापारः, प्रयोजनं विना पृथ्व्याः खननं भूमिकुट्टन पाषाणघूर्णनम् इष्टिकानिष्पादनम् , अलाना व्यापार कार्य विना जलनिक्षेपः जलसेचनं जलसारिणीकूपसरउपकूपवापीप्रमुखेषु जलारम्भः। तथामिपवनानाम् अमीना व्यापारः अमीनां विध्यापनं दवप्रदानम् अन्येषां रन्धनादिनिमित्तमग्निदीपाद्यर्पणम् , वायूनां व्यापारः व्यजनवस्त्रादिना निक्षेपणम् । अपि पुनः, वनस्पतीनां छेदन तृणवृक्षवल्लीपुष्पफलकन्दमूलशाखापत्रादीनां छेदः विनाशनं निःफलः । इति प्रमादचर्यानर्थदण्डः । ३ ॥ ३४६ ॥ अथ चतुर्थ हिंसादानाख्यमनर्थदण्डं समाचष्टे मजार-पहुदि-धरणं आउह-लोहादि-विक्कणं जं च । लक्खो -खलादि-गहणं अणत्थ-दण्डो हवे तुरिओ ॥ ३४७॥ [छाया-मार्जारप्रभृतिधरणम् आयुधलोहादिविक्रयः यः च । लाक्षाखलादिग्रहणम् अनर्थदण्डः भवेत् तुरीयः ॥] स चतुर्थः हिंसादानाख्यः अनर्थदण्डो भवेत् । स कः । यत् मार्जारप्रभृतिधरणं, मार्जारः आखुभुक् प्रभृतिशब्दात् परप्राणिघातहेतूनां मार्जारकुकुरकुकुटशुकपारापतश्येनसर्पव्याघ्रनकुलादीनां हिंसकजीवानां धरणं रक्षणं पालन पोषण च । च पुनः, आयुधलोहादिविक्रयः, आयुधानां खड्गकुन्तच्छुरिकाधनुर्बाणमुद्गरदण्डयष्टितोमरशक्तित्रिशूलपरशुप्रमुखाना शस्त्राणां, लोहानां कुठारदात्रखनित्रश्रृंखलाशाकखण्डनक्रकचलोहगोलकादीनां च विक्रयः क्रयविक्रयः व्यापारेण ग्रहणं दानं च । लाक्षाखलादिग्रहण, लाक्षा जतुका खलः पिण्याकः कर्कोटिकोषा वा तयोर्लाक्षाखलयोः आदिशब्दात् अहिफेनवत्सनागविषपाशजालकशाधात्रुकीपुष्पसौराष्ट्रिकामधुपुष्पशित्थुफशाकमधुप्रमुखानां ग्रहणम् आदानम् अर्पणं च हिंसादाननामानर्थदण्डश्चतुर्थो भवति ॥ ३४७ ॥ अथ पञ्चमं दुःश्रुत्याख्यमनर्थदण्डं दीपयति जं सवणं सत्थाणं भंडण-वसियरण-काम-सत्थाणं । पर-दोसाणं च तहा अणत्थ-दण्डो हवे चरिमो॥ ३४८ ॥ [छाया-यत् श्रवणं शास्त्राणां भण्डणवशीकरणकामशास्त्राणाम् । परदोषाणां च तथा अनर्थदण्डः भवेत् चरमः॥] स चरमः पञ्चमः दुःभुत्याख्यः अनर्थदण्डो भवेत् । स कः । यत् शास्त्राणां कुनयप्रतिपादकाना भारतभागवतमार्कण्डपृथ्वी खोदना, भूमि कूटना, पत्थर तोडना, ईटे बनाना, पानी विखराना, नल खुला छोड देना, आग जलाना, जंगल जलाना, दूसरोंको आग देना, हवा करना, तृण वृक्ष लता फूल फल पत्ते कन्दमूल टहनी वगैरहको व्यर्थ छेदना भेदना वगैरह प्रमादचर्या नामक अनर्थदण्ड है। ऐसे कामोंसे वस्तुओंका व्यर्थ दुरुपयोग होता है, और लाभ कुछ नहीं होता। जरूरतसे ज्यादा खाकर बीमार होना, अन्नको खराब करना, झूठन छोडना आदि भी प्रमादाचरितमें ही संमिलित है ॥ ३४६ ॥ आगे चौथे हिंसादान नामक अनर्थदण्डको कहते है। अर्थ-बिलाव आदि हिंसक जन्तुओंको पालना, लोहे तथा अन शखोंका देना लेना और लाख विष वगैरहका देना लेना चौथा अनर्थदण्ड है । भावार्थबिल्ली, कुत्ता, मुर्गा, बाज, सांप, व्याघ्र, नेवला आदि जो जन्तु दूसरोंके घातक हैं, उनका पालन पोषण करना, जिनसे दूसरोंका घात किया जा सकता है अथवा दूसरोंको बांधा जा सकता है ऐसे तलवार, भाला, छुरी, धनुषबाण, लाठी, त्रिसूल, फासा आदि अस्त्र शस्त्रोंका तथा फावड़ा, कुल्हाड़ी, सांकल, दराती, आरा आदि लोहेके उपकरणोंका देन लेन करना-दूसरों को देना और दूसरोंसे लेना, लाखका व्यापार करना, अफीम, गांजा, चरस, धतूरा, सांखिया, आदि जहरीली और नशीली वस्तुओंको लेना देना, यह हिंसा दान (हिंसाके साधनोंका देन लेन करना) नामका अनर्थदण्ड है ॥ ३४७ ।। आगे पांचवे दुश्रुति नामक अनर्थदण्डको कहते हैं । अर्थ-जिन शास्त्रों या पुस्तकोंमें गन्दे, मजाख, १० स ग आउध। २. लक्ख। ३५चरमो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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