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२५८ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा
[गा० ३५६जिण-वयणेयग्ग-मणो संवुडं-काओ य अंजालिं किच्चा । स-सरूवे संलीणो वंदण-अत्थं विचिंतंतो ॥ ३५६ ॥ किच्चा देस-पमाणं सर्व-सावज-वजिदो हो।
जो कुछदि सामइयं सो मुणि-सरिसो हवे ताव ॥ ३५७ ॥ वन्दनापाठके अर्थका चिन्तन करता हुआ, क्षेत्रका प्रमाण करके और समस्त सावद्य योगको छोडकर जो श्रावक सामायिक करता है वह मुनिके समान है ॥ भावार्थ-सामायिक करनेसे पहले प्रथम तो समस्त सावद्यका यानी पापपूर्ण व्यापारका त्याग करना चाहिये । फिर किसी एकान्त चैत्यालयमें, बनमें, पर्वतकी गुफामें, खाली मकानमें अथवा स्मशानमें जहाँ मनमें क्षोभ उत्पन्न करनेके कारण न हों, जाकर क्षेत्रकी मर्यादा करे कि मैं इतने क्षेत्रमें ठहरूंगा । इसके बाद या तो पर्यङ्कासन लगाये अर्थात् बाँए पैर पर दाहिना पैर रखकर बैठे या कायोत्सर्गसे खड़ा हो जाये, और कालकी मर्यादा करले कि मैं एक घड़ी, या एक मुहूर्त, या एक प्रहर अथवा एक दिन रात तक पर्यङ्कासनसे बैठकर अथवा कायोत्सर्गसे खड़ा होकर सर्व सावद्य योगका त्याग करता हूं। इसके बाद इन्द्रियव्यापारको रोक दे अर्थात् स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र इन्द्रियाँ अपने अपने विषय स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और शब्दमें प्रवृत्ति न करें। और जिनदेवके द्वारा कहे हुए जीवादितत्त्वों से किसी एक तत्वके स्वरूपका चिन्तन करते हुए मनको एकाग्र करे। अपने अङ्गोपाङ्गको निश्चल रखे । फिर दोनों हाथोंको मिला मोती भरी सीपके आकारकी तरह अंजुलि बनाकर अपने शुद्ध बुद्ध चिदानन्द स्वरूपमें लीन होकर अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, सर्वसाधु, जिनवाणी, जिनप्रतिमा और जिनालयकी वन्दना करनेके लिये दो शिरोनति, बारह आवर्त, चार प्रणाम और त्रिशुद्धिको करे । अर्थात् सामायिक करनेसे पूर्व देववन्दना करते हुए चारों दिशाओंमें एक एक कायोसर्ग करते समय तीन तीन आवर्त और एक एक बार प्रणाम किया जाता है, अतः चार प्रणाम और बारह आवर्त होते हैं। देववन्दना करते हुए प्रारम्भ और समाप्तिमें जमीनमें मस्तक टेककर प्रणाम किया जाता है अतः दो शिरोनति होती हैं। और मन वचन और काय समस्त सावध व्यापारसे रहित शुद्ध होते हैं। इस प्रकार जो श्रावक शीत उष्ण आदिकी परीषहको सहता हुआ, विषय कषायसे मनको हटाकर मौनपूर्वक सामायिक करता है वह महाव्रतीके तुल्य होता है; क्यों कि उस समय उसका चित्त हिंसा आदि सब पापोंमें अनासक्त रहता है । यद्यपि उसके अन्तरंगमें संयमको धातनेवाले प्रत्याख्यानावरण कर्मके उदयसे मन्द अविरति परिणाम रहते हैं फिरभी वह उपचारसे महाव्रती कहा जाता है । ऐसा होनेसे ही निम्रन्थलिंगका धारी और ग्यारह अंगका पाठी अभव्य भी महाव्रतका पालन करनेसे अन्तरंगमें असंयम भावके होते हुए भी उपरिम अवेयक तक उत्पन्न हो सकता है। इस तरह जब निम्रन्थरूपका धारी अभव्य भी सामायिकके कारण अहमिन्द्र हो सकता है तब सम्यग्दृष्टि यदि सामायिक करे तो कहना ही क्या है । सामायिक व्रतके भी पाँच अतिचार हैं-योग दुःप्रणिधान,
१ब वयणे एयग्ग। २ ब ग संपुड, [ संयुड?]। ३ व वज्जिओ होऊ, ग वजिदो होउ। ४ हवे सापड, मस हने साड, ग हवे सापडं। ५ सिक्खापयं परमं । पहाण इत्यादि।
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