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खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा
[गा० ३६०श्रावकः शुद्धावकाशे साधुनिवासे चैत्यालये च प्रोषधोपवासगृहे वा धर्मकथाश्रवणश्रावणचिन्तमावहितान्तःकरणः सन् उपवसन् एकाग्रमनाः सन् उपवासं कुर्यात् । स श्रावकः प्रोषधोपवासवती भवति । तथा समन्तभद्रस्वामिना प्रोक्तं च । "पर्वण्यष्टम्यां च ज्ञातव्यः प्रोषधोपवासस्तु । चतुरभ्यवहाराणां प्रत्याख्यानं सदेच्छाभिः॥ पञ्चानां पापानामलंक्रियारम्भगन्धपुष्पाणाम् । नानाअननस्यानामुपवासे परिहृतिं कुर्यात् ॥ धर्मामृतं सतृष्णः श्रवणाभ्यां पिबतु पाययेद्वाऽन्यान् । ज्ञानध्यानपरो वा भवतूपवसन्नतन्द्रालुः ॥ चतुराहारविवर्जनमुपवासः प्रोषधः सकृद्धक्तिः । स प्रोषधोपवासो यदुपोष्यारम्भमाचरति ॥ ग्रहणविसर्गास्तरणान्यदृष्टमृष्टान्यनादरास्मरणे । यत्प्रोषधोपवासे व्यतिलंघनपञ्चकं तदिदम् ॥” इति द्वितीयशिक्षाव्रतं प्रोषधोपवासाख्यं कथितम् २ ॥ ३५८-५९ ॥ अथ तृतीयं शिक्षाव्रतमतिथिसंविभागाख्यं गाथापञ्चकेनाह
तिविहे पत्तम्हि सया सद्धाई-गुणेहि संजुदो णाणी । दाणं जो देदि सयं णव-दाण-विहीहि संजुत्तो ॥ ३६० ॥ सिक्खा-चयं च तिदियं तस्स हवे सब-सिद्धि-सोक्खयरं ।'
दाणं चउविहं पि य सवे दाणाणे सारयरं ॥ ३६१॥ [छाया-त्रिविध पात्रे सदा श्रद्धादिगुणैः संयुतः ज्ञानी । दानं यः ददाति खयं नवदानविधिभिः संयुक्तः ॥ शिक्षाव्रतं च तृतीयं तस्य भवेत् सर्वसिद्धिसौख्यकरम् । दानं चतुर्विधम् अपि च सर्वदानानां सारतरम् ॥] तस्य श्रावकस्य शिक्षाव्रतं दानम् अतिथिसंविभागाख्यं तृतीयं भवेत् स्यात् । कीदृशं तत् । दानं चतुर्विधमपि चतुःप्रकारम्।
रखना तथा आवश्यक कर्तव्यको मी भूल जाना, ये पाँच अतिचार हैं । इन्हें छोड़ना चाहिये । आगे प्रोषध प्रतिमा १६ प्रहरका उपवास करना बतलाया है । अर्थात् सप्तमी और तेरसके दिन दोपहरसे लेकर नौमी और पन्द्रसके दोपहर तक समस्त भोगोपभोगको छोड़ कर एकान्त स्थानमें जो धर्मध्यानपूर्वक रहता है उसके प्रोषधोपवास प्रतिमा होती है । परन्तु यहाँ सोलह प्रहरका नियम नहीं है इसीसे जिसमें उपवास करनेकी सामर्थ्य न हो उसके लिये एक बार भोजन करनामी बतलाया है, क्यों कि यह व्रत शिक्षारूप है । इस तरह प्रोषधोपवास नामक दूसरे शिक्षाव्रतका व्याख्यान समाप्त हुआ ॥ ३५८३५९ ॥ आगे पाँच गाथाओंके द्वारा अतिथिसंविभाग नामक तीसरे शिक्षाव्रतका खरूप कहते हैं । अर्थ-श्रद्धा आदि गुणोंसे युक्त जो ज्ञानी श्रावक सदा तीन प्रकारके पात्रोंको दानकी नौविधियोंके साथ खयं दान देता है उसके तीसरा शिक्षावत होता है। यह चार प्रकारका दान सब दानोंमें श्रेष्ठ है, और सब सुखोंका तथा सिद्धियोंका करनेवाला है ॥ भावार्थ-पात्र तीन प्रकारके होते हैंउत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य । जो महाव्रत और सम्यक्तवसे सुशोभित हो वह उत्तम पात्र है, जो देशव्रत और सम्यक्त्वसे शोभित हो वह मध्यम पात्र है और जो केवल सम्यग्दृष्टि हो वह जघन्य पात्र है। पात्र बुद्धिसे दान देनेके योग्य ये तीनही प्रकार के पात्र होते हैं । इन तीन प्रकारके पात्रोंको दान देने वाला दाता मी श्रद्धाआदि सात गुणोंसे युक्त होना चाहिये । वे सात गुण हैं-श्रद्धा, भक्ति, अलुब्धता, दया, शक्ति, क्षमा और ज्ञान । मैं बड़ा पुण्यवान् हूँ, आज मैंने दान देनेके लिये एक वीतराग पात्र पाया है', ऐसा जिसका भाव होता है वह दाता श्रद्धावान् है। पात्रके समीपमें बैठकर जो उनके पैर दबाता है, वह भक्तिवान् है। 'मुझे इससे काम है इसलिये मैं इसे दान देता हूँ ऐसा भाव जिसके
१ पत्तन्हि, बम पत्तम्मि । २ बसबाई । ३लमस तस्य.ग तईयं । ४ब सम्वसोख(ख) सिद्रियरं । ५सम्बे दाणाणि[सम्बंदाणाण ।
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