Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Swami Kumar, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 392
________________ -३७२] १२. धर्मानुप्रेक्षा २७३ श्रावकस्य सामायिकाख्य व्रतं सर्वसावद्ययोगविरतोऽस्मि लक्षणं भवति । तस्य कस्य । यः श्रावकः करोति विदधाति । के तम्। कायोत्सर्गः कायस्य शरीरादेः उत्सर्गः ममतापरित्यागः तं कायोत्सर्ग शरीरादेर्ममत्वपरित्यागं करोति । दण्डके पञ्चनमस्कारवेलायां कायोत्सर्ग शरीरममत्वपरिहारम् । कथंभूतः सन् श्रावकः । द्वादशावर्तसंयुक्तः, करयोः आवर्तनं परिभ्रमण आवर्तः, द्वादश चैते आवर्ताश्च हस्तपरिभ्रमगाः । दण्डकस्य प्रारम्भे त्रयः आवर्ताः पञ्चनमस्कारोच्चारेणादौ मनोवचनकायानां संयमनानि शुभयोगवृत्तयः त्रयः आवतोः ३, तथा पञ्चनमस्कारसमाप्तो 'दुश्चरियं वोस्सरामि' अत्र आवतोस्त्रयः मनोवचनकायाना शुभवृत्तयः त्रयः आवोः ३, चतुर्विशतिस्तवनादौ 'थोस्सामि है जिणवरे' अत्र मनोवचनकायानां शुभवृत्तयः त्रीण्यपरावर्तनानि ३, तथा चतुर्विशतिस्तवनसमाप्तौ "सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु' अत्र शुभमनोवचनकायावृत्तयस्त्रीण्यावर्तनानि ३, एवं द्वादशधा मनोवचनकायवृत्तयो द्वादशावर्ता भवन्ति १२ । एवं द्वादशावर्तेन समेतः, अथवा चतुर्दिक्षु चत्वारः प्रणामाः एकस्मिन् भ्रमणे, एवं त्रिषु भ्रमणेषु द्वादशावर्ताः तैर्युक्तः । पुनः कीदृक्षः । धीरः धियं बुद्धिं राति गृह्णातीति धीरः भेदज्ञानी वा परीषहोपसर्गसहनसमर्थः । पुनः कीदृक्षः । नतिद्वयं कुर्वन् द्वे अवनती विधानः, दण्डकस्यादौ अन्ते च नतिद्वयम्, हस्तद्वयं मस्तके कृत्वा भूमौ नमनं पञ्चनमस्कारादौ एकावनतिर्भूमि संस्पृश्य तथा चतुर्विंशतिस्तवनान्ते द्वितीयावनतिः शरीरनमनम्, द्वे अवनती कुर्वन् । पुनरपि कीहक् । चतुःप्रगामः चत्वारः प्रणामाः शिरोनतयः यस्य स तथोक्तः । दण्डकस्यादौ एकः प्रणामः १, मध्ये द्वौ प्रणामौ २, अन्ते एकः प्रणामः १ । तथाहि पञ्चनमस्कारस्यादौ अन्ते च करमुकुलाङ्कितशिरःकरणं २, तथा चतुर्विशतिस्तवादी अन्ते च करमुकुलाङ्कितशिरः करणमेवं २ चत्वारि शिरांसि चतुःशिरोनतयः चतुःप्रगामः । स पुनः कीदृक् । प्रसन्नात्मा प्रसन्नः कषायादिदुःपरिणामरहितः आत्मा स्वरूपं यस्य स प्रसन्नात्मा क्रोधमानमायालोभरागद्वेषसंगादिपरिणामरहितः निर्मलपरिणाम इत्यर्थः । पुनः कीदृक्षः। चिन्तयन् ध्यायन् अनुभवन् । किम् । खखरूपं स्वशुद्धचिद्रूपं स्वशुद्धबुद्धकपरमानन्दस्वरूपपरमात्मानं चिन्तयन् , अथवा जिनबिम्ब जिनप्रतिमा ध्यायति, अथवा परमाक्षर ध्यायति चिन्तयति ॥ उक्तं च । 'पणतीस ३५ सोल १६ छ ६ प्पण ५ चदु ४ दुग २ मेगं १ च जवह झाएह । परमेट्रिवाचयाणं अण्णं च गुरूवदेसेण ॥ इति । तथा कायोत्सर्गके अन्तमें दोनों हाथोंको मुकुलित करके मन वचन कायकी शुद्धताके सूचक तीन आवर्त करे, अर्थात् दोनों मुकुलित करोंको तीन बार घुमाये । और फिर दोनों हाथ मस्तकसे लगाकर प्रणाम करे। इस तरह चारों दिशाओंमें कायोत्सर्ग समाप्त करके पुनः दोनों हाथ मस्तकसे लगाकर भूमिमें नमस्कार करे। ऐसा करनेसे प्रत्येक दिशामें तीन तीन आवर्त और एक एक प्रणाम करनेसे बारह आवर्त और चार प्रणाम होते हैं, तथा दण्डकके आदि और अन्तमें दो नमस्कार होते हैं । इस तरह दण्डक कर चुकनेके पश्चात् ध्यान किया जाता है । ध्यान करते समय या तो शुद्ध बुद्ध परमानन्द स्वरूप परमात्माका चिन्तन करना चाहिये या जिनबिम्बका चिन्तन करना चाहिये या परमेष्ठीके वाचक मंत्रोंका चिन्तन करना चाहिये । कहा भी है-'परमेष्ठीके वाचक ३५, १६, ६, ५, ४, २, और एक अक्षरके मंत्रका जप करो और ध्यान करो । तथा गुरूके उपदेश से अन्य भी मंत्रोंको जपो और ध्यान करो।' सो पैतीस अक्षरका मंत्र तो नमस्कार मंत्र है । 'अर्हन्त-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधुः' यह मंत्र १६ अक्षर का है । 'अरिहन्त सिद्ध' यह मंत्र छ: अक्षरका है । 'अ सि आ उ सा' यह मंत्र पांच अक्षरका है । 'अरिहन्त' यह मंत्र चार अक्षरका है । 'सिद्ध' यह मंत्र दो अक्षरका है और 'ओं' यह मंत्र एक अक्षरका है । इन मंत्रोंका ध्यान करना चाहिये । और यदि सामायिकके समय कोई परीषह या उपसर्ग आजाये और मन विचलित होने लगे तो कोंके उदयका विचार करना चाहिये । या वैसे भी ज्ञानावरण आदि कमोंके विपाकका चिन्तन करना चाहिये कि शुभ प्रकृतियोंका उदय गुड खाण्ड शर्करा और अमृतके समान कार्तिके १५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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