________________
२४४
स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा
गा० ३३८
स्थूलो ब्रह्मवती भवेत, स्थूलब्रह्मत्रती चतुर्थब्रह्मचर्याणुव्रतधारी स्यात् । स कः । यः मणवयणे कायेण वि मनसा चित्तेन वचनेन वचसा कायेन शरीरेणापि । अपिशब्दः चकारार्थे । परमहिलां परेषां स्त्रियम् अन्येषां युवतीं स्वकलत्रं विहाय अन्य तो जानाति । कीदृशीं परमहिलांम् । जननीभगिनीसुतादिसदृशीम् । जननी माता भगिनी खसा सुता पुत्री, आदिशब्दात् मातामही पितामही श्वश्रूः इत्यादिसमानां मन्यते । यः चतुर्थव्रतधारी मनोवचनकायैः कृतकारितानुमतविकल्पैः नवप्रकारैः परस्त्रियं मातृस्वसृपुत्री मातामहीपितामहीश्वश्वादिसदृशीं समानां मन्यते जानाति चिन्तयति । यः चतुर्थाणुव्रतधारी महिलादेहं वनिताशरीरम् अशुचिमयं रुधिरमांसास्थिचर्ममलमूत्रादिनिर्वृत्तं निष्पन्नं भृतम् अपवित्रम् अस्पृश्यं पुनः मन्यते जानाति । पुनः दुर्गन्धं महापूतिगन्धं मलमूत्रप्रवेदनाद्युद्भवदुर्गन्धतायुक्तं देहं मन्यते । विरच्यमानः विचारयन् सन् स्त्रीशरीरस्य विचारं कुर्वन् सन् विरज्यमानो वा विरक्तिं गच्छन् सन् वैराग्यं गतवान् । तथा चोक्तं च । “दुर्गन्धे चर्मंगर्ते व्रणमुखशिखरे मूत्ररेतः प्रवाहे मांसासृकर्दमाद्रे कृमिकुलकलिते दुर्गमे दुर्निरीक्षे । विष्ठाद्वारोपकण्ठे गुदविवरगलद्वायुधूमार्तधूपे कामान्धः कामिनीनां कटितटनिकटे गर्दभत्युत्थमोहात् ॥” इति । तासां महिलानां रूपं सौरूप्यं शोभनरूपं लावण्यं
और पुत्री के समान समझता है, वह श्रावक स्थूल ब्रह्मचर्यका धारी है ॥ भावार्थ-चतुर्थ ब्रह्मचर्याणुत्रतका धारी श्रावक मनसे, वचनसे और कायसे अपनी पत्नीके सिवाय शेष सब स्त्रियोंको, जो बड़ी हो उसे माता के समान, जो बराबरकी हो उसे बहिन के समान और जो छोटी हो उसे पुत्रीके समान जानता है, तथा रुधिर, मांस, हड्डी, चमड़ा, मल मूत्र वगैरह से बने हुए स्त्रीशरीरको अस्पृश्य समझता है, और मल मूत्र पसीने वगैरहकी दुर्गन्धसे भरा हुआ विचारता है । इस तरह स्त्रीके शरीरका विचार करके वह कामसे विरक्त होनेका प्रयत्न करता है । कहा भी है- 'स्त्रीका अवयव दुर्गन्धसे भरा हुआ है, उससे मूत्र बहता है, मांस और लोहूरूपी कीचड़से सदा गीला बना रहता है, कृमियोंका घर है, देखने में घिनावना है, किन्तु कामान्ध मनुष्य उसे देखते ही मोहसे अन्धा बन जाता है ।' अतः ब्रह्मचर्याणुव्रती स्त्रियों के रूप, लावण्य, प्रियवचन, प्रिय गमन, कटाक्ष और स्तन आदिको देखकर यही सोचता है कि ये सब मनुष्योंको मूर्ख बनानेके साधन हैं । इस प्रकार ब्रह्मचर्याणुव्रती परस्त्रियोंसे तो सदा विरक्त रहता ही है, किन्तु अष्टमी और चतुर्दशीको अपनी स्त्रीके साथ भी कामभोग नहीं करता । कहा भी है- 'जो पर्वके दिनोंमें स्त्रीसेवन नहीं करता तथा सदा अनंगक्रीडा नहीं करता उसे जिनेन्द्र भगवानने स्थूल ब्रह्मचारी कहा है।' आचार्य समन्तभद्रने कहा है- 'जो पापके भयसे न तो परस्त्रीके साथ स्वयं रमण करता है और न दूसरोंसे रमण कराता है उसे परदारनिवृत्ति अथवा स्वदारसन्तोष नामक व्रत कहते हैं'। इस व्रतकेमी पाँच अतिचार हैं - अन्य विवाह करण, अनङ्गक्रीडा, विटत्व, विपुल तृषा, इत्वरिका गमन । अपने पुत्र पुत्रियोंके सिवाय दूसरोंके विवाह रचाना अन्य विवाहकरण नामक अतिचार है । कामसेवनके अंगोंको छोड़कर अन्य अंगोंमें क्रीडा करना अनंगक्रीडा नामक अतिचार है । अश्लील वचन बोलना वित्व अतिचार है । कामसेवनकी अत्यन्त लालसा होना विपुल तृषा नामक अतिचार है । दुराचारिणी स्त्री वेश्या वगैरहके अंगोंकी ओर ताकना, उनसे संभाषण वगैरह करना इत्वरिकागमन नामका अतिचार है । ये और इसप्रकारके अन्य अतिचार ब्रह्मचर्याणुत्रतीको छोड़ने चाहिये । इस व्रत में नीली अत्यन्त प्रसिद्ध है । उसकी कथा इस प्रकार है-लाट देशके भृगुकच्छ नगरमें राजा वसुपाल राज्य करता था। वहीं जिनदत्त नामका एक सेठ रहता था । उसकी पत्नीका नाम जिनदत्ता था । उन दोनोंके नीली नामकी एक अत्यन्त रूपवती पुत्री थी। उसी नगर में समुद्रदत्त नामका एक दूसरा सेठ रहता था । उसकी पत्नीका नाम सागरदत्ता था । उन दोनोंके सागरदत्त नामका पुत्र था ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org