Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Swami Kumar, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 361
________________ २४२ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० ३३६ परद्रव्यं न हरति मायालोमेन क्रोधमानेन । दृढचित्तः शुद्धमतिः अणुव्रती स भवेत् तृतीयः॥] स पुमान् तृतीयः अणुव्रती तृतीयाचौर्यव्रतधारी भवेत् स्यात् । स कः । यः पुमान् नैव गृह्णाति न च आदत्ते । किं तत् । अल्पमूल्येन स्तोकद्रव्येण बहुमूल्यं बहुद्रव्यमूल्यं वस्तु अनर्थ्य रत्नमणिमाणिक्यमुक्ताफलस्वर्णकपूरकस्तूरिकापट्टदुकूलसुवर्णरूप्यनाणकादिवस्तु कूट रत्नमणिमाणिक्यमुक्ताफलपित्तललवणमषिस्थूलवस्त्रकूटसुवर्णरूप्यनाणकादिना तुच्छमूल्येन न गृह्णातीत्यर्थः । विस्मृतमपि वस्तु अपिशब्दात् अविस्मृतं वस्तु केनापि विस्मृतम् अविस्मृतं वस्तु नादत्त न गृह्णाति । अपिशब्दात् पतितम् अखामिकं भूम्यादो लब्धं वस्तु न च गृह्णाति । हि स्फुट निश्चयेन वा। स्तोकेऽपि वल्पेऽपि लाभे व्यापारसमये स्तोकेन स्वल्पेन लाभेन तुष्यति संतोषं प्राप्नोति । यः संतोषव्रतधारी परद्रव्यं परेषाम् अन्येषां द्रव्यं रत्नसुवर्णमाणिक्यपट्टदुकूलादिवस्त्रम् अदत्तं सत् न हरते न आदत्ते न गृह्णाति न लाति । केन । मायालोमेन मायया कापट्येन धूर्तविद्यया पाषण्डप्रपञ्चेन, लोमेन तृष्णया अत्याकांक्षया, क्रोधमानेन कोपं कृत्वा अदत्तं वस्तु न गृह्णातीत्यर्थः, मानेन अहंकारेण अहं सर्वमान्यः वृद्ध इति कृत्वा परद्रव्यमदत्त न गृह्णातीत्यर्थः। कीदृक्षः । तृतीयाणुव्रतधारी दृढचित्तः स्व व्रते निश्चलमनाः। पुनः कीदक्षः । शुद्धमतिः खातिचारपञ्चकनिवृत्त्या निर्मलमतिः । 'स्तेनप्रयोगतदाहृतादानविरुद्धराज्यातिक्रमहीनाधिकमानोन्मानप्रतिरूपकव्यवहाराः' । कश्चित्पुमान् चोरी करोति, अन्यस्तु कश्चित् तं चोरपुरुषं चोरयन्तं स्वयं प्रेरयति मनसा वाचा कायेन, अन्येन वा केनचित् पुंसा तं चोरपुरुषं चोरयन्तं खयं प्रेरयति मनसा वाचा कायेन, अन्येन वा केनचित्युंसा तं चोरयन्तं प्रेर्यते मनसा वाचा कायेन, स्वयमन्येन वा प्रेर्यमाणं चोरी कुर्वन्तं अनुमन्यते मनसा वाचा कायेन । इति नवप्रकारेण स्तेनप्रयोगः। १। चोरेण अर्थ-जो बहुमूल्य वस्तुको अल्प मूल्यमें नहीं लेता, दूसरे की भूली हुई वस्तुको भी नहीं उठाता, थोड़े लाभसे ही सन्तुष्ट रहता है, तथा कपट, लोभ, माया या क्रोधसे पराये द्रव्यका हरण नहीं करता, यह शुद्धमति दृढनिश्चयी श्रावक अचौर्याणुव्रती है । भावार्थ-सात व्यसनोंके त्यागसें चोरीके व्यसनका त्याग तो हो ही जाता है। अतः अचौर्याणुव्रती बहुमूल्य मणि मुक्ता वर्ण वगैरहको तुच्छ मूल्यमें नहीं खरीदता, यानी जिस वस्तुकी जो कीमत उचित होती है उसी उचित कीमतसे खरीदता है क्योंकि प्रायः चोरीका माल सस्ती कीमतमें बिकता है । अतः अचौर्याणुव्रती होनेसे वह चोरीका माल नहीं खरीद सकता, क्यों कि इससेभी व्रतमें दूषण लगता है । तथा भूली हुई, या गिरी हुई, या जमीनमें गढ़ी हुई पराई वस्तुको भी नहीं लेता । व्यापारमें थोड़ा लाभ होनेसे ही सन्तुष्ट हो जाता है, चोरबाजारी वगैरहके द्वारा अधिक द्रव्य कमानेकी भावना नहीं रखता । कपट धूर्तता वगैरहसे, धनकी तृष्णासे, क्रोधसे अथवा घमण्डमें आकर परद्रव्यको झटकनेका प्रयत्न मी नहीं करता । अपने व्रतमें दृढ़ रहता है और व्रतमें अतिचार नहीं लगाता । इस व्रतके भी पाँच अतिचार हैं-स्तेन प्रयोग, तदाहृतादान, विरुद्ध राज्यातिक्रम, हीनाधिकमानोन्मान, प्रतिरूपक व्यवहार । कोई पुरुष चोरी करता है, दूसरा कोई पुरुष उस चोरको मन वचन कायसे चोरी करनेकी प्रेरणा करता है, या दूसरेसे प्रेरणा कराता है, अथवा प्रेरणा करनेवालेकी अनुमोदना करता हैं । इस तरह नौ प्रकारसे चोरी करनेकी प्रेरणा करनेको स्तेनप्रयोग कहते हैं । चोरीका माल मोल लेना तदाहृतादान नामका अतिचार है । राजनियमोंके विरुद्ध व्यापार आदि करना विरुद्ध राज्यातिकम नामक अतिचार है । तराजुको उन्मान कहते हैं, बांटोंको मान कहते हैं । खरीदनेके बांट अधिक और बेचनेके बांट कम रखना हीनाधिक मानोन्मान नामका अतिचार है । जाली सिक्कोंसे लेनदेन करना प्रतिरूपक व्यवहार नामका अतिचार है । ये और इस तरहके अतिचार अचौर्याणुव्रतीको छोड़ देने चाहिये । अचौर्याणुव्रतमें वारिषेणका नाम प्रसिद्ध है उसकी कथा इस प्रकार है। मगधदेशके राजगृह नगरमें राजा श्रेणिक राज्य करता था। उसकी रानी चेलना थी। उन दोनोंके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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