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१२. धर्मानुप्रेक्षा
२४१ तथा पञ्चातिचारा वर्जनीयाः । 'मिथ्योपदेशरहोभ्याख्यानकूटलेखक्रियान्यासापहारसाकारमत्रभेदाः'। अभ्युदयनिःश्रेयसयोरिन्द्राहमिन्द्रतीर्थकरादिसुखस्य परमनिर्वाणपदस्य च निमित्तं या क्रिया सत्यरूपा वर्तते तस्याः क्रियायाः मुग्धलोकस्य अन्यथाकथनम् अन्यथाप्रवर्तनं धनादिनिमित्तं परवञ्चनं च मिथ्योपदेशः। १ । स्त्रीपुरुषाभ्यां रहसि एकान्ते यः क्रियाविशेषोऽनुष्ठितः कृतः उक्तो वा स क्रियाविशेषो गुप्तवृत्त्या गृहीत्वा अन्येषां प्रकाश्यते तद्रहोभ्याख्यानम् । २ । केनचित्पुंसा अकथितम् अश्रुतं किंचित्कार्य द्वेषवशात्परपीडार्थम् एवमनेनोक्तमेवमनेन कृतम् इति परवञ्चनार्थ यत् लिख्यते राजादौ दश्यते सा कूटलेखक्रिया पैशुन्यमित्यर्थः । ३। केनचित्पुरुषेण निजमन्दिरे किं द्रव्यं न्यासीकृतं निक्षिप्तं तस्य द्रव्यस्य ग्रहणकाले संख्या विस्मृता विस्मरणात् अल्पं द्रव्यं गृह्णाति, न्यासवान् पुमान् अनुज्ञावचनं ददाति । हे देवदत्त यावन्मात्र द्रव्यं तव वर्तते तावन्मानं त्वं गृहाण, किमत्र प्रष्टव्यम् । जानन्नपि परिपूर्ण तस्य न ददाति न्यासापहारः । ४ । कार्यकरणमङ्गविकारं भ्रूक्षेपादिकं परेषां दृष्ट्वा पराभिप्रायमुपलभ्य ज्ञात्वा असूयादिकारणेन तस्य पराभिप्रायस्य अन्येषां प्रकटनं यत् क्रियते स साकारमन्त्रभेदः । ५ । एते द्वितीयाणुव्रतस्य पञ्चातिचाराः वर्जनीयाः। असत्यवचने दृष्टान्तकथाः वसुनृपधनदेवजिनदेवसत्यघोषादीनां ज्ञातव्याः ॥३३३-३४ ॥ अथ तृतीयाचौर्यव्रतं गाथाद्वयेनाह
जो बहु-मुल्लं' वत्थु अप्पय-मुल्लेण व गिण्हेदि । वीसरियं पि ण गिण्हदि लाहे थोवेवि तूसेदि ॥ ३३५ ॥
जो परदवं ण हरदि माया-लोहेण कोह-माणेण ।
दिढ-चित्तो सुद्ध-मई अणुबई सो हवे तिदिओ ॥ ३३६ ॥ [छाया-यः बहुमूल्यं वस्तु अल्पकमूल्येन नैव गृह्णाति । विस्मृतम् अपि न गृह्णाति लामे स्तोके अपि तुष्यति ॥ यः कूट लेख क्रिया नामका अतिचार है । किसी पुरुषने किसीके पास कुछ द्रव्य धरोहर रूपसे रखा। लेते समय वह उसकी संख्या भूल गया और जितना द्रव्य रख गया था उससे कम उससे मांगा तो जिसके पास धरोहर रख गया था वह उसे उतना द्रव्य दे देता है जितना वह मांगता है, और जानते हुए भी उससे यह नहीं कहता कि तेरी धरोहर अधिक है, तू कम क्यों मांगता है ? यह न्यासापहार नामका अतिचार है। मखकी आकृति वगैरहसे दूसरोंके मनका अभिप्राय जानकर उसको दूसरोंपर प्रकट कर देना, जिससे उनकी निन्दा हो, यह साकार मंत्रभेद नामका अतिचार है । इस प्रकारके जिन कामोंसे व्रतमें दूषण लगता हो उन्हें नहीं करना चाहिये । सत्याणुव्रतमें धनदेवका नाम प्रसिद्ध है। उसकी कथा इस प्रकार है। पुण्डरीकिणी नगरीमें जिनदेव और धनदेव नामके दो गरीब व्यापारी रहते थे । धनदेव सत्यवादी था। दोनोंने बिना किसी तीसरे साक्षीके आपसमें यह तय किया कि व्यापारसे जो लाभ होगा उसमें दोनोंका आधा आधा भाग होगा। और वे व्यापारके लिये विदेश चले गये तथा बहुतसा द्रव्य कमाकर लौट आये। जिनदेवने धनदेवको लाभका आधा भाग न देकर कुछ भाग देना चाहा । इसपर दोनोंमें झगड़ा हुआ और दोनों न्यायालयमें उपस्थित हुए. । साक्षी कोई था नहीं, अतः जिनदेवने यही कहा कि मैंने धनदेवको उचित द्रव्य देनेका वादा किया था, आधा भाग देनेका वादा नहीं किया था । धनदेवका कहना था कि आधा भाग देना तय हुआ था । राजाने धनदेवको सब द्रव्य देना चाहा, किन्तु वह बोला कि मैं तो आधेका हकदार हूँ, सबका नहीं। इसपरसे उसे सच्चा और जिन देवको झूठा जानकर राजाने सब द्रव्य धनदेवको ही दिला दिया, तथा उसकी प्रशंसा की ॥ ३३३-३३४ ॥ आगे दो गाथाओंसे तीसरे अचौर्याणुव्रतका खरूप कहते हैं।
१ब मोल्लं । २ अप्पय इति पाठः पुस्तकान्तरे दृष्टः, बल म स ग अप्पमुलेण । ३ सग. थूवे । ४ स अणुव्वदी।
कार्तिके०३१
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