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-३३८] १२. धर्मानुप्रेक्षा
२४५ वणिमा शरीरस्य सौभाग्यं प्रियवचनं प्रियगमनं कटाक्षस्तनादिदर्शनं च मनोमोहनकारण मनसः चेतसः मोहस्य व्यामोहस्यानस्य मौव्यस्य कारणं हेतुः कुणइ करोति । मुणइ वा पाठे मनुते जानाति । स्त्रीणां रूपं लावण्यं च पुरुषस्य मनोमोहनकारण रोति विदधातीत्यर्थः। तथा चतुर्थव्रतधारी अष्टम्यां चतुर्दश्यां च खस्त्रियः कामक्रीडां सदा सर्वकालं च त्यजति । तदुक्तं च । 'पव्वेसु इत्थिसेवा अणंगकीडा सया विवजंतो । थूलयडबम्हचारी जिणेहिं भणिदो पवयणम्हि ॥” इति । तथा च । “न व परदारान् गच्छति न परान् गमयति च पापभीतेर्यत् । सा परदारनिवृत्तिः खदारसंतोषनामापि ॥” इति । तथा च वतुर्थव्रतधारी पञ्चातिचारान् वर्जयति । “अन्यविवाहाकरणानङ्गक्रीडाविटत्वविपुलतृषाः । इत्वरिकागमन चास्मरस्य पञ्च यतीचाराः ॥" स्वपुत्रपुत्र्यादीन् वर्जयित्वा अन्येषां गोत्रिणां मित्रखजनपरिजनांनां विवाहकरणातिचारः। १। आयोनिलेहं च ताभ्यां योनिलिङ्गाभ्यां विना करकुक्षकुचादिप्रदेशेषु क्रीडनं अनाक्रीडातिचारः।२। विटत्वं भण्डवचनादिकम् अयोग्यवचनम् । ३ । विपुलतृषा कामसेवायां प्रचुरतृष्णा बहुलाकांक्षा । यस्मिन् काले स्त्रियां प्रवृत्तिरुका तस्मिन् काले कामतीवाभिनिवेशः । व्रतयुक्ताबालातिरश्चीप्रभृतीनां गमनं रागपरिणाम विपुलतृषाः । ४ । इत्वरिकागमनं पुंश्चलीवेश्यादासीनां गमनं जघनस्तनवदनादिनिरीक्षणसंभाषणहस्तभ्रकटाक्षादिसंज्ञाविधानम् इत्येवमादिक निखिलं रागित्वेन दुवेष्टितं गमनमित्युच्यते । ५। एते पञ्चातिचाराः चतुर्थव्रतधारिणा वर्जनीयाः। अत्र दृष्टान्ताः सुदर्शनश्रेष्ठिनीलीचन्दनादयः कोट्टपालकडारपिंगामृतमत्यादयश्च ॥ ३३७-३८ ॥ अथ परिग्रहविरतिपञ्चमाणुव्रतं गाथाद्वयेनाह
एकबार वसन्तऋतुमें महापूजाके अवसर पर समस्त अलंकारसे भूषित नीलीको कायोत्सर्गसे स्थित देखकर सागरदस बोला-क्या यह कोई देवी है ! यह सुनकर उसके मित्र प्रियदत्तने कहा-'यह जिनदत्त सेठकी पुत्री नीली है । सागरदत्त उसे देखते ही उसपर आसक्त होगया और उसकी प्राप्तिकी चिंतासे दिन दिन दुर्बल हो चला । जब यह बात समुद्रदत्तने सुनी तो वह बोला-'पुत्र, जैनीके सिवाय दूसरेको जिनदत्त अपनी कन्या नहीं देगा । अतः बाप बेटे कपटी श्रावक बन गये और नीलीको विवाह लाये । उसके बाद पुनः बौद्ध होगये । बेचारी नीलीको अपने पिताके घर जानेकी भी मनाई होगई। नीली श्वसुर गृहमें रहकर जैनधर्मका पालन करती रही। यह देखकर उसके श्वसुरने सोचा कि संसर्गसे और उपदेशसे समय बीतनेपर यह बौद्ध धर्म स्वीकार कर लेगी । अतः उसने एक दिन नीलीसे कहा-'पुत्रि, हमारे कहनेसे एक दिन बौद्ध साधुओंको आहार दान दो।' उसने उन्हें आमंत्रित किया और उनकी एक एक पादुकाका चूर्ण कराकर भोजनके साथ उन्हें खिला दिया । जब वे साधु भोजन करके जाने लगे तो उन्होंने पूछा-हमारी एक एक पादुका कहाँ गई ! नीली बोली-'आप ज्ञानी हैं, क्या इतना भी नहीं जान सकते ? यदि नहीं जानते तो वमन करके देखें, आपके उदरसे ही आपकी पादुका निकलेगी ।' वमन करते ही पादुकाके टुकड़े निकले, यह देख श्वसुरपक्ष बहुत रुष्ट हुआ। तब सागरदत्तकी बहनने गुस्सेमें आकर नीलीको पर पुरुषसे रमण करनेका झूठा दोष लगाया । इस झूठे अपवादके फैलनेपर नीलीने खानपान छोड़ दिया और प्रतिज्ञा ले ली कि यह अपवाद दूर होनेपर ही भोजन ग्रहण करूँगी । दूसरे दिन नगरके रक्षक देवताने नगरके द्वार कीलित कर दिये और राजाको खप्न दिया कि सतीके पैरके छूनेसे ही द्वार खुलेगा। प्रातः होनेपर राजाने सुना कि नगरका द्वार नहीं खुलता। तब उसे रात्रिके खमका स्मरण हुआ। तुरन्त ही नगरकी स्त्रियोंको आज्ञा दी गई कि वे अपने चरणसे द्वारका स्पर्श करें । किन्तु अनेक स्त्रियोंके वैसा करनेपर भी द्वार नहीं खुला । तब अन्तमें नीलीको ले जाया गया। उसके चरणके स्पर्शसे ही नगरके सब द्वार खुलगये । सबने नीलीको निर्दोष समझकर उसकी पूजा की ॥ ३३७-३३८॥
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