Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Swami Kumar, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

Previous | Next

Page 327
________________ २०८ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० २९१[छाया-रत्नं चतुष्पथे इव मनुजत्वं सुष्टु दुर्लभ लब्ध्वा । म्लेच्छः भवति जीवः तत्र अपि पापं समर्जयति ॥] जीवः आत्मा मिथ्यादृष्टिम्लेच्छ: म्लेच्छखण्डोद्भवः पञ्चाशदधिकाष्टशतम्लेच्छखण्डोद्भवः अनार्यदेशोत्पन्नो वा भवेत् । किं कृत्वा । पूर्व लहिय लब्ध्वा प्राप्य । किं तत् । मनुष्यत्वं नरत्वम् । कीदृशम् । सुष्ठ अतिशयेन दुर्लभं दुःप्राप्यं चुल्लकपाशकादि दशदृष्टान्तेन दुरवापम् । क किमिव । चतुःपथे रत्नमिव यथा चतुष्पथे रत्नं दुर्लभं दुःप्राप्यं तथा मनुष्यत्वं दुर्लभम् । तत्रापि म्लेच्छजन्मनि समर्जयति समुपार्जयति । किं तत् । पापं दुरितं व्यसनादिकेन पापाचरणं चरति ॥ २९० ॥ अथार्यखण्डादिषु उत्तरोत्तरदुर्लभत्वं गाथाषट्रेनाह अह लहदि' अजवत्तं तह ण वि पावेइ उत्तम गोत्तं । उत्तम-कुले वि पत्ते धण-हीणो जायदे जीवो ॥ २९१॥ [छाया-अथ लभते आर्यावर्त तथा न अपि प्राप्नोति उत्तम गोत्रम् । उत्तमकुले अपि प्राप्ते धनहीनः जायते जीवः॥] अथ अथवा लभते प्राप्नोति । किं तत् । आर्यखण्डम, अर्यते गम्यते सेव्यते गुणैर्गुणवद्धिासौ आर्यः उत्तमपुरुषस्तीर्थकरचक्रवादिलक्षणः तद्वत् क्षेत्रम् आर्यखण्डमित्यर्थः । तत्रार्यखण्डे नापि प्राप्नोति न लभते । किं तत् । उत्तमं गोत्रं महाव्रतप्राप्तियोग्यं मोक्षसाधनयोग्यं च क्षत्रियादिकुलम् । तथा कदाचित् उत्तमकुले प्रशस्तकुले ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यकुले प्राप्ते संपन्ने जायते उत्पद्यते । कः । जीवः । कीदृक्षः । धनहीनः धनधान्यसुवर्णगृहरत्नमुक्ताफलगजाश्वगोमहिषीवस्त्राभरणादिरहितः दरिद्रो जीवः ॥ २९१॥ अह धण-सहिदो होदि हु इंदिय-परिपुण्णदा तदो दुलहा । अह इंदिय-संपुण्णो तह वि सरोओ हवे देहो ॥ २९२ ॥ [छाया-अथ धनसहितः भवति खलु इन्द्रियपरिपूर्णता ततः दुर्लभा । अथ इन्द्रियसंपूर्णः तथापि सरोगः भवेत् देहः ॥ अथ अथवा, हु इति स्फुट, कदाचित् धनसहितः धनाढ्यो महर्द्धिको भवति। ततः धनयुक्तत्वेऽपि इन्द्रियपरिदुर्लभ है वैसे ही मनुष्यभव भी अत्यन्त दुर्लभ है । तिर्यश्च पर्यायसे निकलकर और अत्यन्त दुर्लभ मनुष्यभवको पाकर भी यह जीव मिथ्यादृष्टि म्लेच्छ होकर पापका उपार्जन करता है । भावार्थ-मनुष्यभव पाकरभी यदि मिथ्यादृष्टि हुआ और म्लेच्छ खण्डोंमें जन्म लिया तो पापही करता है ॥२९०॥ आगे आर्य खण्ड वगैरहकी उत्तरोत्तर दुर्लभता बतलाते हैं । अर्थ-यदि कदाचित् आर्यखण्डमें जन्म लेता है तो उत्तम कुल पाना दुर्लभ है । कदाचित् उत्तम कुल भी मिला तो धनहीन दरिद्री होता है ॥ भावार्थ-जो गुणोंसे अथवा गुणवानोंसे सेवित होते है अर्थात् जो स्वयं गुणी होते हैं तथा गुणवानोंकी संगतिमें रहते हैं उन्हें आर्य कहते हैं । आर्य अर्थात् तीर्थङ्कर चक्रवर्ती आदि उत्तम पुरुष जिस भूमिमें जन्म लेते हैं वह भूमि आर्यखण्ड कही जाती है । यदि मनुष्यभव पाकर वह जीव आर्यखण्डका मनुष्य हुआ और महाव्रतकी प्राप्तिके योग्य अथवा मोक्ष साधनके योग्य उत्तम क्षत्रिय आदिका कुल नहीं पाया तोभी मनुष्यभव पाना व्यर्थ हुआ। तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यका प्रशस्त कुल पाकर भी यदि धनधान्यसे रहित दरिद्री हुआ तो भी जीवन कष्टमेंही बीतता है ॥ २९१ ॥ अर्थ-अथवा धनसम्पन्न भी हुआ तो इन्द्रियोंकी पूर्णताका पाना दुर्लभ है। कदाचित् इन्द्रियाँ भी पूर्ण हुई और शरीर रोगी हुआ तो भी सब व्यर्थ है ॥ भावार्थ-कदाचित् धनाढ्य भी हुआ तो हाथ पैरसे ठीक होना, अर्थात् अपंग, अन्धा वगैरह न होना कठिन है । कदाचित् शरीर अविकल हुआ और आंख नाक कान वगैरह १ल मग लहइ, स लहई। २ ब अजवंतं, लमग अजवंत्तं, स अर्जवंत्तं, [अजवत्तं]। ३ग आर्यते। ४लम सहिओ, ग सहिउ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594