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१२. धर्मानुप्रेक्षा छाया-भक्त्या पूज्यमानः व्यन्तरदेवः अपि ददाति यदि लक्ष्मीम् । तत् किं धर्मेण क्रियते एवं चिन्तयति सदृष्टिः ॥] व्यन्तरदेवोऽपि क्षेत्रपालकालीचण्डिकायक्षादिलक्षणः भक्त्या विनयोत्सवादिना पूज्यमानः आर्चितः सन् लक्ष्मी संपदां ददाति यदि चेत् , तो तर्हि धर्मः कथं क्रियते विधीयते । तथा चोक्तम् । “तावच्चन्द्रबलं ततो ग्रहबलं ताराबलं भूबलं, तावत्सिध्यति वाञ्छितार्थमखिलं तावज्जनः सजनः । मुद्रामण्डलमत्रतन्त्रमहिमा तावत्कृतं पौरुषं, यावत्पुण्यमिदं सदा विजयते पुण्यक्षये क्षीयते ॥” तथा 'धर्मः सर्वसुखाकरो हितकरो धर्म बुधाश्चिन्वते' इत्यादिकम् एवं पूर्वोक्तप्रकारं च सम्यग्दृष्टिः चिन्तयति ध्यायति ॥ ३२० ॥ अथ सम्यग्दृष्टिः एवं वक्ष्यमाणलक्षणं विचारयतीति गाथात्रयेणाह
जं जस्स जम्मि' देसे जेण विहाणेण जम्मि कालम्मि ।
णादं जिणेण णियदं जम्मं वा अहव मरणं वा ॥ ३२१ ॥ [छाया-यत् यस्य यस्मिन् देशे येन विधानेन यस्मिन् काले । ज्ञातं जिनेन नियतं जन्म वा अथवा मरणं वा ॥] यस्य पुंसः जीवस्य यस्मिन् देशे अङ्गवङ्गकलिङ्गमरुमालवमलयाटगुर्जरसौराष्ट्रविषये पुरनगरकर्वटखेटग्रामवनादिके वा येन विधानेन शस्त्रेण विषेण वैश्वानरेण जलेन शीतेन श्वासोच्छ्वासरुन्धनेनान्नादिविकारेण कुष्टभगंधरकुटुंदरैपिचण्डपीडाप्रमुखरोगेण वा यस्मिन् काले समयमुहूर्तप्रहरपूर्वाह्नमध्याह्नापराह्नसंध्यादिवसपक्षमासवर्षादिके नियतं निश्चितं यत् जन्म अवतरणम् उत्पत्तिर्वा अथवा मरणं वा शब्दः समुच्चयार्थः सुखं दुःखं लाभालाभमिष्टानिष्टादिकं गृह्यते । तत् सर्वं कीदृक्षम् । देशविधानकालादिकं जिनेन ज्ञातं केवलज्ञानिनावगतम् ॥ ३२१॥
तं तस्स तम्मि देसे तेण विहाणेण तम्मि कालमि।
को सक्कदि वारे, इंदो वा तह जिणिंदो वा ॥ ३२२॥ लक्ष्मी आदिक देते हैं तो फिर धर्माचरण करना व्यर्थ है । अर्थ-सम्यग्दृष्टि विचारता है कि यदि भक्तिपूर्वक पूजा करनेसे व्यन्तर देवी देवता भी लक्ष्मी दे सकते हैं तो फिर धर्म करनेकी क्या आवश्यकता है ? भावार्थ-लोग अर्थाकांक्षी हैं । चाहते हैं कि किसी भी तरह उन्हें धनकी प्राप्ति हो । इसके लिये वे उचित अनुचित, न्याय और अन्यायका विचार नहीं करते । और चाहते हैं, कि उनके इस अन्यायमें देवता भी मदद करें। बस वे देवताकी पूजा करते हैं बोल कबूल चढ़ाते हैं । उनके धर्मका अंग केवल किसी न किसी देवताका पूजना है । जैसे लोकमें वे धनके लिये सरकारी कर्मचारियोंको घूस देते हैं वैसे ही वे देवी देवताओंको भी पूजाके बहाने एक प्रकारकी घूस देकर उनसे अपना काम बनाना चाहते हैं। किन्तु सम्यग्दृष्टि जानता है कि कोई देवता न कुछ दे सकता है और न कुछ ले सकता है, तथा धन सम्पत्तिकी क्षणभंगुरता भी वह जानता है । वह जानता है कि लक्ष्मी चंचल है, आज है तो कल नहीं है । तथा जब मनुष्य मरता है तो उसकी लक्ष्मी यहीं पड़ी रह जाती है । अतः वह लक्ष्मीके लालचमें पड़कर देवी देवताओंके चक्करमें नहीं पड़ता । और केवल आत्महितकी भावनासे प्रेरित होकर वीतराग देवका ही आश्रय लेता है और उन्हें ही अपना आदर्श मानकर उनके बतलाये हुए मार्गपर चलता है । यही उनकी सच्ची पूजा है अतः किसीने ठीक कहा है-तभी तक चन्द्रमाका बल है, तभी तक ग्रहोंका, तारोंका और भूमिका बल है, तभी तक समस्त वांछित अर्थ सिद्ध होते हैं, तभी तक जन सज्जन हैं, तभी तक मुद्रा, और मंत्र तंत्रकी महिमा हैं और तभी तक पौरुष भी काम देता है जबतक यह पुण्य है । पुण्यका क्षय होने पर सब बल क्षीण हो जाते हैं ॥३२०॥ सम्यग्दृष्टि और भी विचारता है । अर्थ-जिस जीवके जिस देशमें, जिस कालमें, जिस विधानसे जो जन्म . १स जम्हि । २प कुढंदर। ३ ल ग तम्हि । ४ स कालम्हि । ५लग सक्कइ चालेहूँ। ६ल ग अह जिणंदो।
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