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-२२७ ] १०. लोकानुप्रेक्षा
१६१ द्रव्यस्याप्यभावः। सर्वथा नित्यः अनित्यः एकः अनेकः भेदः अभेदः कथम् । तथा सर्वथात्मनः अचैतन्यपक्षेऽपि सकलचैतन्योच्छेदः स्यात् । मूर्तस्यैकान्तेन आत्मनो न मोक्षस्यावाप्तिः स्यात् । सर्वथा अमूर्तस्यापि तथात्मनः संसारविलोपः स्यात् । एकप्रदेशस्यैकान्तेनाखण्डपरिपूर्णस्यात्मनो अनेककार्यकारित्वमेव हानिः स्यात् सर्वथानेकप्रदेशत्वेऽपि तथा तस्यानर्थकार्यकारित्वं स्वस्वभावशून्यताप्रसंगात् । शुद्धस्यैकान्तेन आत्मनो न कर्ममलकलङ्कावलेपः । सर्वथा निरअनत्वात् । इति सर्वथैकान्त नास्तीति ॥ २२६ ॥ अथ नित्यैकान्तेऽर्थक्रियाकारित्वं निरुणद्धि
परिणामेण विहीणं णिचं दवं विणस्सदे णेवे ।
णो उप्पजेदि सयों एवं कजं कहं कुणदि ॥ २२७॥ [छाया-परिणामेन विहीनं नित्यं द्रव्यं विनश्यति नैव । न उत्पद्यते सदा एवं कार्य कथं कुरुते ॥] नित्यं द्रव्य ध्रौव्यं, जीवादिवस्तु सर्वथा अविनश्वरं वस्तु, परिणामेन उत्पादव्ययादिपर्यायेण विहीनं रहितं विमुक्तं वस्तु सत् नैव विनश्यति न विनाशं गच्छति। पूर्वपर्यायरूपेण विनश्यति चेत् तर्हि नित्यत्वं न स्यात्, सदा नोत्पद्यते। उत्तरपर्यायरूपेण नित्यं वस्तु नोत्पद्यते। उत्पद्यते चेत् तर्हि नित्यत्वं न स्यात् । यदि नित्यं वस्तु अर्थक्रियां न करोति तदा वस्तुत्वं न
विशेष रह सकता है और बिना विशेषके सामान्य रह सकता है। अतः दोनोंका ही अभाव हो जायेगा। तथा वस्तुको सर्वथा अनेकरूप माननेपर द्रव्यका अभाव हो जायेगा; क्योंकि उस अनेक रूपोंका कोई एक आधार आप नहीं मानते । तथा आधार और आधेयका ही अभाव हो जायेगा। क्योंकि सामान्यके अभावमें विशेष और विशेषके अभावमें सामान्य नहीं रह सकता। सामान्य
और विशेषमें सर्वथा भेद मानने पर निराधार होनेसे विशेष कुछ भी क्रिया नहीं कर सकेंगे, और कुछ भी क्रिया न करनेपर द्रव्यका भी अभाव हो जायेगा । सर्वथा अभेद माननेपर सब एक हो जायेंगे, और सबके एक होजाने पर अर्थक्रिया नहीं बन सकती । अर्थक्रियाके अभावमें द्रव्यका भी अभाव हो जायेगा । इस तरह सर्वथा नित्य, सर्वथा अनिव्य, सर्वथा एक, सर्वथा अनेक, सर्वथा भेद, सर्वथा अभेदरूप एकान्तोंके स्वीकार करनेपर वस्तुमें अर्थक्रिया नहीं बन सकती। तथा आत्माको सर्वथा अचेतन माननेसे चैतन्यका ही अभाव हो जायेगा । सर्वथा मूर्त माननेसे कभी उसे मोक्ष नहीं हो सकेगा । सर्वथा अमूर्त माननेसे संसारका ही लोप हो जायेगा । सर्वथा अनेक प्रदेशी माननेसे आत्मामें अर्थक्रियाकारित्व नहीं बनेगा; क्योंकि उस अवस्थामें घट पटकी तरह आत्माके प्रदेशभी पृथक् पृथक् हो सकेंगे और इस तरह आत्मा स्वभाव शून्य हो जायेगी । तथा आत्माको सर्वथा शुद्ध माननेसे कभी वह कर्ममलसे लिप्त नहीं हो सकेगा क्योंकि वह सर्वथा निर्मल है । इन कारणोंसे सर्वथा एकान्त ठीक नहीं है।॥ २२६ ॥ अब सर्वथा नित्यमें अर्थक्रियाका अभाव सिद्ध करते हैं। अर्थ-परिणामसे रहित नित्य द्रव्य न तो कभी नष्ट हो सकता है
और न कभी उत्पन्न हो सकता है । ऐसी अवस्थामें वह कार्य कैसे कर सकता है । भावार्थयदि वस्तुको सर्वथा ध्रुव माना जायेगा तो उसमें उत्पाद और व्ययरूप पर्याय नहीं हो सकेंगी।
और उत्पाद तथा व्ययके न होनेसे वह वस्तु कभी नष्ट नहीं होगी । यदि उसकी पूर्व पर्यायका विनाश माना जायेगा तो वह सर्वथा नित्य नहीं रहेगी। इसी तरह उस वस्तुमें कभी भी नवीन पर्याय उत्पन्न नहीं होगी। यदि होगी तो वह नित्य नहीं ठहरेगी। और पूर्व पर्यायका विनाश तथा १ल म सगणेय । २ ब णउ उपज्जेदि सया, ल स ग णो उप्पज्जदि सया, म णो उप्पजेदि सया ।
कार्तिके०२१
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