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स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा
[गा० २६६
[छाया-स एव एकः धर्मः वाचकशब्दः अपि तस्य धर्मस्य । यत् जानाति तत् ज्ञानं ते त्रयोऽपि नयविशेषाः च॥ च पुनः, ते त्रयो नयविशेषाः ज्ञातव्याः। ते के। स एव एको धर्मः नित्योऽनित्यो वा, अस्तिरूपः नास्तिरूपो वा, एकरूपः अनेकरूपो वा, इत्याद्यकखभावः नयः। नयग्राह्यत्वात् इत्येकनयः। १। तस्य धर्मस्य नित्यत्वाद्येकखभावस्य वाचकशब्दोऽपि तत्प्रतिपादकशब्दोऽपि नयः कथ्यते । ज्ञानस्य करणे कार्ये च शब्दे नयोपचारात् इति द्वितीयो वाचकनयः । २। तं नित्यायेकधर्म जानाति तत् ज्ञानं तृतीयो नयः । ३। सकलवस्तुग्राहकं ज्ञानं प्रमाणम् , तदेकदेशग्राहको नयः । इति वचनात् ॥ २६५ ॥ ननु नयानामेकधर्मग्राहकत्वे मिथ्यात्वं स्यात् इत्युक्तिं निरस्यति
ते सावेक्खा सुणया णिरवेक्खा ते वि दुण्णया होति ।
सयल-ववहार-सिद्धी सु-णयादो होदि णियमेण ॥ २६६ ॥ [छाया-ते सापेक्षाः सुनयाः निरपेक्षाः ते अपि दुर्णयाः भवन्ति । सकलव्यवहारसिद्धिः सुनयतः भवति नियमेन ॥] ते त्रयो नयाः धर्मशब्दज्ञानरूपाः सापेक्षाः खविपक्षापेक्षासहिताः। यथा अस्त्यनित्यमेदादिग्राहका नयाः नास्तिनित्यमेदादिसापेक्षाः सन्तः सुनया शोभननयाः सत्यरूपाः नया भवन्ति । अपि पुनः, ते त्रयो नया धर्मशब्दज्ञानरूपाः निरपेक्षाः स्खविपक्षापेक्षारहिताः। यथा नास्तिनिरपेक्षः सर्वथा अस्तिखभावः, अनित्यत्वनिरपेक्षः सर्वथा नित्यखभावः, अभेदत्वनिरपेक्षः सर्वथा भेदखभावः। इत्यादिनिरपेक्षा नया दुर्णया भवन्ति । तथा चोक्तम् । 'दुर्णयैकान्तमारूढा
वस्तुका एक धर्म, उस धर्मका वाचक शब्द और उस धर्मको जाननेवाला ज्ञान, ये तीनों ही नयके भेद हैं ॥ भावार्थ-नयके तीन रूप हैं-अर्थरूप, शब्दरूप और ज्ञानरूप । वस्तुका एक धर्म अर्थरूप नय है, उस धर्मका वाचक शब्द शब्दरूप नय है, और उस धर्मका ग्राहक ज्ञान ज्ञानरूप नय है। वस्तुका एक धर्म नयके द्वारा ग्राह्य है इसलिये उसे नय कहा जाता है । और उसका वाचक शब्द तथा ग्राहक ज्ञान एक धर्मको ही कहता अथवा जानता है इस लिये वह तो नय है ही ॥२६५ ॥ यहाँ यह शङ्का हो सकती है कि जब एकान्तवाद मिथ्या है तो एक धर्मका ग्राहक होनेसे नय मिथ्या क्यों नहीं है ? इसीका आगे समाधान करते हैं । अर्थ-ये नय सापेक्ष हों तो सुनय होते हैं और निरपेक्ष हों तो दुर्नय होते हैं । सुनयसे ही नियमपूर्वक समस्त व्यवहारोंकी सिद्धि होती है। भावार्थये तीनोंही नय यदि सापेक्ष होते हैं, अर्थात् अपने विपक्षीकी अपेक्षा करते हैं तो सुनय होते हैं । जैसे सत् , अनित्य और अभेदको ग्रहण करनेवाले नय असत्, अनित्य और भेदकी अपेक्षा करनेसे सुनय यानी सच्चे नय होते हैं । और यदि ये नय निरपेक्ष होते हैं अर्थात् यदि अपने विपक्षीकी अपेक्षा नहीं करते, जैसे वस्तु असत् से निरपेक्ष सर्वथा सत्स्वरूप है, अनित्यत्वसे निरपेक्ष सर्वथा नित्यखरूप है या अभेदनिरपेक्ष सर्वथा भेदरूप है ऐसा यदि मानते जानते अथवा कहते हैं तो वे दुर्नय हैं । कहा मी है-'दुर्नयके विषयभूत एकान्त रूप पदार्थ वास्तविक नहीं हैं क्योंकि दुर्नय केवल स्वार्थिक है, दूसरे नयोंकी अपेक्षा न करके केवल अपनी पुष्टि करते हैं । और जो स्वार्थिक अत एव विपरीतग्राही होते हैं वे नय सदोष होते हैं ।' इसका खुलासा इस प्रकार है-वस्तुको सर्वथा एकान्तरूपसे सत् मानने पर वस्तुके नियतरूपकी व्यवस्था नहीं बन सकती, क्योंकि जैसे वह स्वरूपसे सत् है वैसेही पर रूपसे भी सत् है । अतः घट पट चेतन अचेतन कोई भेद नहीं रहेगा और इस तरह संकर आदि दोष उपस्थित होंगे। तथा वस्तुको एकान्तरूपसे सर्वथा असत् मानने पर सब संसार शून्यरूप हो जायेगा। सर्वथा नित्यरूप
१लम स ग साविक्सा...णिरविक्खा । २ग विवहार । ३ बणेयमेण ।
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