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-२३१] १०. लोकानुप्रेक्षा
१६३ नूतननूतनपर्यायलक्षणकार्यविशेषा भवन्ति । किं कृत्वा । एकैकस्मिन् समये एकस्मिन् क्षणे क्षणे पूर्वोत्तरभावम् आश्रित्य पूर्वोत्तरभावं श्रित्वा कारणकार्यभावं समाश्रित्य ॥ २२९ ॥ अथ पूर्वोत्तरपरिणामयोः कारणकार्यभावं द्रढयति
पुष-परिणाम-जुत्तं कारण-भावेण वदे दव्वं ।
उत्तर-परिणाम-जुदं तं चिय कजं हवे णियमा ॥ २३० ॥ [छाया-पूर्वपरिणामयुक्त कारणभावेन वर्तते द्रव्यम् । उत्तरपरिणामयुतं तत् एव कार्य भवेत् नियमात् ॥ ] द्रव्यं जीवपुद्गलादिवस्तु, पूर्वपरिणामयुक्तं पूर्वपर्यायाविष्टं, कारणभावेन उत्तरभावकार्यस्य कारणभावेन उपादान कारणत्वेन वर्तते । यथा मृदुव्यस्य मृत्पिण्डपर्यायः । उत्तरघटपर्यायस्योपादानकारणं तदेव द्रव्यम् उत्तरपरिणामयुक्तम् उत्तरपर्यायसहितं नियमात् कार्य भवेत् , साध्यं स्यात् । यथा मृद्रव्यस्य मृत्पिण्डः उपादानकारणभूतः घटलक्षण कार्य जनयति ॥ २३० ॥ अथ जीवस्यानादिनिधनत्वं सामग्रीविशेषात् कार्यकारित्वं द्रढयति
जीवो आणाई-णिहणो परिणममाणो हु णव-णवं भावं ।
सामग्गीसु पवट्टदि कजाणि समासदे पच्छा ॥ २३१॥ [छाया-जीवः अनादिनिधनः परिणममानः खलु नवनवं भावम् । सामग्रीषु प्रवर्तते कार्याणि समाश्रयते पश्चात् ॥] जीवः आत्मा. ह इति स्फुटम्, अनादिनिधनः आद्यन्तरहितः, सामग्रीषु द्रव्यक्षेत्रकालभवभावादिलक्षणासु प्रवर्तते। जीवः कीहक सन् । नवं नवं भाव नूतनं नूतनं नरनारकादिपयोयरूपं परिणममानः सन् परिणतिं पर्यायं गच्छन् सन् वर्तते । पश्चात् कार्याणि उत्तरोत्तरपर्यायान् समस्तान् प्राप्नोति करोतीत्यर्थः । यथा कश्चिजीवः नवं नवं देवादिपर्याय और उत्तर परिणामकी अपेक्षा नये नये कार्यविशेष होते हैं ॥ भावार्थ-वस्तुको सर्वथा क्षणिक अथवा सर्वथा नित्य न मानकर परिणामी नित्य माननेसे कार्यकारणभाव अथवा अर्थक्रिया बनती है; क्योंकि वस्तुत्वरूपसे ध्रुव होते हुए भी वस्तुमें प्रतिसमय एक पर्याय नष्ट होती और एक पर्याय पैदा होती है । इस तरह पूर्व पर्यायका नाश और उत्तर पर्यायका उत्पाद प्रति समय होते रहनेसे नये नये कार्य (पर्याय ) होते रहते हैं ॥ २२९ ॥ आगे पूर्व परिणाम और उत्तर परिणामसे युक्तद्रव्यमें कार्यकारणभावको दृढ़ करते हैं । अर्थ-पूर्व परिणामसे युक्त द्रव्य नियमसे कारण रूप होता है । और वही द्रव्य जब उत्तर परिणामसे युक्त होता है तब नियमसे कार्यरूप होता है ॥ भावार्थअनेकान्तरूप एक ही द्रव्यमें कार्यकारणभाव नियमसे बनता है । पूर्व परिणामसे युक्त वही द्रव्य कारण होता है। जैसे मिट्टीकी पिण्डपर्याय कारणरूप होती है । और वही द्रव्य जब उत्तर पर्यायसे युक्त होता है तो कार्यरूप होता है । जैसे घटपर्यायसे युक्त वही मिट्टी पूर्व पर्यायका कार्य होनेसे कार्यरूप है क्योंकि मृत्पिण्ड घटकार्यका उपादान कारण होता है । इस तरह अनेकान्तरूप परिणामी नित्य द्रव्यमें कार्यकारणभाव नियमसे बन जाता है ।। २३० ॥ आगे अनादिनिधन जीवमें कार्यकारणभावको दृढ़ करते हैं । अर्थ-जीव द्रव्य अनादि निधन है । किन्तु वह नवीन नवीन पर्यायरूप परिणमन करता हुआ प्रथम तो अपनी सामग्रीसे युक्त होता है, पीछे कार्योंको करता है ॥ भावार्थ-जीव द्रव्य अनादि और अनन्त है अर्थात् न उसकी आदि है और न अन्त है । परन्तु अनादि अनन्त होते हुए भी वह सर्वथा नित्य नहीं है, किन्तु उसमें प्रति समय नई नई पर्याय उत्पन्न होती रहती हैं । नई नई पर्यायोंको उत्पन्न करनेके लिये प्रथम वह जीव द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव आदि रूप सामग्री से युक्त होता है फिर नई नई
१ब अणाय-।२ ब वि।
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