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१८२ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा
[गा० २५८पर्ययावधिज्ञानानाम् एकदेशविशदत्वात् देशप्रत्यक्षं च । पुनः मतिश्रुतज्ञानम् इन्द्रियैर्मनसा च यथायथम् अर्थान् मन्यते मतिः मनुतेऽनया वा मतिः मननं वा मतिः । श्रुतज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमे सति निरूप्यमाणं श्रूयते यत्तत् श्रुतं, शृणोति अनेन तत् श्रुतम् , श्रवणं वा श्रुतं तच्च तद् ज्ञानम् । मतिज्ञानं श्रुतज्ञानं च क्रमशः क्रमेण विशदपरोक्ष परोक्षं च । यत् इन्द्रियानिन्द्रियजं मतिज्ञानं तत् विशदम् एकदेशतः विशदं स्पष्टम् । उक्तं च परीक्षामुखे । इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तं देशतः सांव्यवहारिकमिति सांव्यवहारिकप्रत्यक्षं मतिज्ञानं कथ्यते । यत् श्रुतज्ञानं तत्परोक्षम् अविशदम् अस्पष्टमित्यर्थः । मनःपर्यायज्ञानम् अवधिज्ञानं च देशप्रत्यक्षं स्यात् । मतिज्ञानम् एकदेशपरोक्षं श्रुतज्ञानं परोक्षज्ञानं स्यात् ॥ २५७ ॥ अथेन्द्रियज्ञानस्य योग्यं विषय विशदयति
इंदियजं मदि-णाणं जोग्गं' जाणेदि पुग्गलं दव्वं ।
माणस-णाणं च पुणो सुय-विसयं अक्ख-विसयं च ॥ २५८ ॥ पुद्गल, उनको जो जाने वह अवधि है । अथवा अपने क्षेत्रसे नीचेकी ओर इस ज्ञानका विषय अधिक होता है इसलिये भी इसे अवधि ज्ञान कहते हैं । अवधि ज्ञानके तीन भेद हैं-देशावधि, परमावधि और सर्वावधि । मनःपर्ययज्ञान और अवधिज्ञान एक देशसे प्रत्यक्ष होनेके कारण देशप्रत्यक्ष हैं। जो ज्ञानपरकी सहायताके बिना स्वयं ही पदार्थों को स्पष्ट जानता है उसे प्रत्यक्ष कहते हैं । ये दोनोंही ज्ञान इन्द्रिय आदिकी सहायताके बिना अपने २ विषयको स्पष्ट जानते हैं इसलिये प्रत्यक्ष तो हैं, किन्तु एक तो केवल रूपी पदार्थोंको ही जानते हैं दूसरे उनकी भी सब पर्यायोंको नहीं जानते, अपने २ योग्य रूपी द्रव्यकी कतिपय पर्यायोंको ही स्पष्ट जानते हैं । इसलिये ये देशप्रत्यक्ष हैं । इन्द्रिय और मनकी सहायतासे यथायोग्य पदार्थको जाननेवाले ज्ञानको मतिज्ञान कहते हैं । तथा श्रुतज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम होनेपर मतिज्ञानसे जाने हुए पदार्थको विशेष रूपसे जाननेवाले ज्ञानको श्रुतज्ञान कहते हैं। श्रुत शब्द यद्यपि 'श्रु' धातुसे बना है और 'श्रु' का अर्थ 'सुनना' होता है । किन्तु रूढ़िवश ज्ञान विशेषका नाम श्रुतज्ञान है । ये दोनों ज्ञान इन्द्रियों और मनकी यथायोग्य सहायतासे होते हैं इसलिये परोक्ष हैं । क्यों कि 'पर' अर्थात् इन्द्रियाँ, मन, प्रकाश, उपदेश वगैरह बाह्य निमित्तकी अपेक्षासे जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह परोक्ष कहा जाता है । अतः यद्यपि ये दोनों ही ज्ञान परोक्ष हैं किन्तु इनमेंसे मतिज्ञान प्रत्यक्ष भी है और परोक्ष भी है । मतिज्ञानको प्रत्यक्ष कहनेका एक विशेष कारण है । भट्टाकलंक देवसे पहले यह ज्ञान परोक्ष ही माना जाता था । किन्तु इससे अन्य मतावलम्बियोंके साथ शास्त्रार्थ करते हुए एक कठिनाई उपस्थित होती थी। जैनोंके सिवा अन्य सब मतावलम्बी इन्द्रियोंसे होनेवाले ज्ञानको प्रत्यक्ष कहते हैं । एक जैन धर्म ही उसे परोक्ष मानता था, तथा लोकमें भी इन्द्रिय ज्ञानको प्रत्यक्ष कहा जाता है । अतः भट्टाकलंक देवने मतिज्ञानको सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष नाम दिया । जो यह बतलाता है कि मतिज्ञान लोकव्यवहारकी दृष्टिसे प्रत्यक्ष है, किन्तु वास्तवमें प्रत्यक्ष नहीं है । इसीसे परीक्षामुखमें प्रत्यक्षके दो भेद किये हैं-एक सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष और एक मुख्य प्रत्यक्ष । तथा इन्द्रिय और मनके निमित्तसे उत्पन्न होनेवाले एकदेश स्पष्ट ज्ञानको सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा है ।।२५७॥ आगे इन्द्रिय ज्ञानके योग्य विषयको कहते हैं । अर्थ-इन्द्रियोंसे उत्पन्न होनेवाला मतिज्ञान अपने योग्य पुद्गल द्रव्यको जानता है । और मानसज्ञान श्रुतज्ञानके विषयको भी जानता है तथा इन्द्रियोंके
१लम स ग जुग्गं ।
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