________________
-२४१]
१०. लोकानुप्रेक्षा समये उत्पाद विनाशं च गच्छतीति पर्यायः वा क्रमवर्ती पर्यायः पर्यायस्य व्युत्पत्तिः । पर्यायः विशेषरूपो भवेत् । विशेष्यं द्रव्यं विशेषः पर्यायः । हीति यस्मात् , सततं निरन्तरं द्रव्यमपि विशेषेण पर्यायरूपेण उत्पद्यते विनश्यति च ॥ २४० ॥ अथ गुणखरूपं निरूपयति
सरिसो जो परिणामो अणाइ-णिहणो हवे गुणो सो हि।
सो सामण्ण-सरूवो उप्पज्जदि णस्सदे णेय ॥ २४१ ॥ [छाया-सदृशः यः परिणामः अनादिनिधनः भवेत् गुणः स हि । स सामान्यस्वरूपः उत्पद्यते नश्यति नैव ॥1 हीति निथितम् । स गुणो भवेत् यः परिणामः परिणमनखरूपमिति यावत् , सदृशः सर्वत्र पर्यायेषु सादृश्यं गतः। कीहक्षो गुणः । अनादिनिधनः आद्यन्तरहितः, सोऽपि च गुणः सामान्यस्वरूपः परापरविवर्तव्यापी सद्रूपः द्रव्यत्वरूपः जीवत्वादिरूपश्च स गुणः न उत्पद्यते नैव विनश्यति । यथा जीवे ज्ञानादयो गुणाः 'सहभाचिनो गुणाः' इति वचनात् , तथा च जीवादिद्रव्याणां सामान्यविशेषगुणाः कथ्यन्ते ॥ अस्तित्वं १ वस्तुत्वं २ द्रव्यत्वं ३ प्रमेयत्वम् ४ अगुरुलघुत्वं ५ चेतनत्वं ६ प्रदेशत्वम् ७ अमूर्तत्वम् ८ एते अष्टौ जीवस्य सामान्यगुणाः । अनन्तज्ञानदर्शनसुखवीर्याणि ४ अमूर्तत्वं ५ चेतनत्वम् ६ एते षट् जीवस्य विशेषगुणाः । धर्माधर्माकाशकालानां प्रत्येकम् अस्तित्वं १ वस्तुत्वं २ द्रव्यत्वं ३ प्रमेयत्वम् ४ अगुरुलघुत्वं ५ प्रदेशत्वम् ६ अचेतनत्वम् ७ अमूर्तत्वम् ८ एते अष्टौ सामान्यगुणाः । पुद्गलानाम् अस्तित्वं १ वस्तुत्व २ द्रव्यत्वं ३ प्रमेयत्वम् ४ अगुरुलघुत्वं ५ प्रदेशत्वम् ६ अचेतनत्वं ७ मूर्तत्वम् ८ एते अष्टौ सामान्यगुणाः । अपेक्षा नहीं । [ यहाँ इतना विशेष वक्तव्य है कि टीकाकारने जो अन्वयका अर्थ नरनारकादि पर्याय किया है वह ठीक नहीं है। अनु-अय=अन्वयं का अर्थ होता है वस्तुके पीछे पीछे उसकी हर हालतमें साथ रहना | यह बात नारकादि पर्यायमें नहीं है किन्तु गुणोंमें पाई जाती है । इसीसे सिद्धान्तमें गुणोंको अन्वयी और पर्यायोंको व्यतिरेकी कहा है ] ॥ २४० ॥ आगे गुणका खरूप कहते हैं । अर्थ-द्रव्यका जो अनादि निधन सदृश परिणाम होता है वही गुण है। वह सामान्यरूप न उत्पन्न होता है और न नष्ट होता है । भावार्थ-द्रव्य परिणमनशील है, परिणमन करना उसका खभाव है। किन्तु द्रव्यमें होनेवाला परिणाम दो प्रकारका है-एक सदृश परिणाम, दूसरा विसदृश परिणाम । सदृश परिणामका नाम गुण है और विसदृश परिणामका नाम पर्याय है । जैसे जीव द्रव्यफा चैतन्यगुण सब पर्यायोंमें पाया जाता है । मनुष्य मरकर देव हो अथवा तिर्यञ्च हो, चैतन्य परिणाम उसमें अवश्य रहता है। चैतन्य परिणामकी अपेक्षा मनुष्य, पशु वगैरह समान हैं क्योंकि चैतन्य गुण सबमें है । यह चैतन्य परिणाम अनादि निधन है, न उत्पन्न होता है और न नष्ट होता है । अर्थात् किसी जीवका चैतन्य परिणाम नष्ट होकर वह अजीव नहीं हो जाता और न किसी पुद्गलमें चैतन्य परिणाम उत्पन्न होनेसे वह चेतन होजाता है। इस तरह सामान्य रूपसे वह अनादि निधन है। किन्तु विशेषरूपसे चैतन्यका भी नाश और उत्पाद होता है; क्योंकि गुणोंमें भी परिणमन होता है । यहाँ प्रकरणवश जीवादि द्रव्योंके सामान्य और विशेष गुण कहते हैं-अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, अगुरुलघुत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व, प्रदेशत्व, मूर्तत्व और अमूर्तत्व, ये द्रव्योंके दस सामान्य गुण हैं । इनमेंसे प्रत्येक द्रव्यमें आठ आठ सामान्य गुण होते हैं; क्योंकि जीव द्रव्यमें अचेतनत्व और मूर्तत्व ये दो गुण नहीं होते, और पुद्गल द्रव्यमें चेतनत्व और अमूर्तल्व ये दो गुण नहीं होते । तथा धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य और कालद्रव्यमें चेतनत्व
१ब सरिसउऽजो प,ससो परिणामो जो। २ब वि।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org