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१०. लोकानुप्रेक्षा ष्टयापेक्षया द्रव्यमस्तीत्यर्थः ॥ १॥ स्यान्नास्ति । स्यात् कथंचित् विवक्षितप्रकारेण परद्रव्यपरक्षेत्रपरकालपरभावचतुष्टयापेक्षया द्रव्यं नास्तीत्यर्थः ॥२॥ स्यादस्तिनास्ति । स्यात्कथंचित् विवक्षितप्रकारेण क्रमेण खद्रव्यपरद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया द्रव्यमस्तिनास्तीत्यर्थः॥३॥ स्यादवक्तव्यम् । स्यात् कथंचित् विवक्षितप्रकारेण युगपद्वक्तुमशक्यत्वात् , क्रमप्रवतिनी भारतीति वचनात् . युगपत्स्वद्रव्यपरद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया द्रव्यमवक्तव्यमित्यर्थः॥४॥ स्यादस्त्यवक्तव्यम्। स्यात् कथंचित् विवक्षितप्रकारेण स्वद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया [युगपत्वद्रव्यपरद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया च स्यादस्त्यवक्तव्यम् इत्यर्थः॥५॥ स्यान्नास्त्यवक्तव्यम् । स्यात् कथंचित् विवक्षितप्रकारेण परद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया युगपत्वद्रव्यपरद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया च] द्रव्य नास्त्यवक्तव्यमित्यर्थः ॥ ६ ॥ स्यादस्तिनास्त्यवक्तव्यम् । स्यात् कथंचित् विवक्षितप्रकारेण क्रमेण खपरद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया युगपत्खपरद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया च द्रव्यमस्ति नास्त्यवक्तव्यमित्यर्थः ॥ ७॥ तथा एकस्मिन् समये एकमपि द्रव्यं खद्रव्यचतुष्टयापेक्षया कथंचित्सत् परद्रव्यचतुष्टयापेक्षया कथंचित् असत्, तद्रव्यापेक्षया एकमेक हो जायेंगी। उदाहरण के लिये, घट और पट ये दोनों वस्तु हैं । किन्तु जब हम किसीसे घट लानेको कहते हैं तो वह घट ही लाता है। और जब हम पट लानेको कहते हैं तो वह पट ही लाता है। इससे सिद्ध है कि घट घट ही है पट नहीं है, और पट पट ही है घट नहीं है । अतः दोनोंका अस्तित्व अपनी २ मर्यादामें ही सीमित है, उसके बाहर नहीं है । यदि वस्तुएं इस मर्यादाका उल्लंघन कर जायें, तो सभी वस्तुएँ सबरूप हो जायेंगी । अतः प्रत्येक वस्तु खरूपकी अपेक्षासे ही सत् है और पररूपकी अपेक्षासे असत् है । जब हम किसी वस्तुको सत् कहते हैं तो हमें यह ध्यान रखना चाहिये कि वह वस्तु स्वरूपकी अपेक्षासे ही सत् कही जाती है, अपनेसे अन्य वस्तुओंके खरूपकी अपेक्षा संसारकी प्रत्येक वस्तु असत् है। देवदत्तका पुत्र संसार भरके मनुष्योंका पुत्र नहीं है और न देवदत्त संसार भरके पुत्रोंका पिता है । इससे क्या यह नतीजा नहीं निकलता कि देवदत्तका पुत्र पुत्र है और नहीं भी है। इसी तरह देवदत्त पिता है और नहीं भी है। अतः संसारमें जो कुछ सत् है वह किसी अपेक्षासे असत् भी है । सर्वथा सत् या सर्वथा असत् कोई वस्तु नहीं है । अतः एक ही समय में प्रत्येक द्रव्य सत् भी है और असत् भी है । स्वरूपकी अपेक्षा सत् है और परद्रव्यकी अपेक्षा असत् है । इसी तरह एक ही समयमें प्रत्येक वस्तु नित्य भी है और अनित्य भी है । द्रव्यकी अपेक्षा नित्य है, क्योंकि द्रव्यका विनाश नहीं होता, और पर्यायकी अपेक्षा अनित्य है; क्योंकि पर्याय नष्ट होती है । तथा एकही समयमें प्रत्येक वस्तु एक भी है और अनेक मी है। पर्यायकी अपेक्षा अनेक है क्योंकि एक वस्तुकी अनेक पर्यायें होती हैं और द्रव्यकी अपेक्षा एक है । तथा एकही समयमें प्रत्येक वस्तु भिन्न भी है और अभिन्न भी है । गुणी होनेसे अभेदरूप है और गुणोंकी अपेक्षा भेदरूप है; क्योंकि एक वस्तुमें अनेक गुण होते हैं । इस तरह वस्तु अनन्त धर्मात्मक है । उस अनन्त धर्मात्मक वस्तुको जानना उतना कठिन नहीं है जितना शब्दके द्वारा उसका कहना कठिन है; क्योंकि एक ज्ञान अनेक धर्मोको एक साथ. जान सकता है किन्तु एक शब्द एक समयमें वस्तुके एक ही धर्मको कह सकता है । इसपर भी शब्दकी प्रवृत्ति वक्ताके अधीन है। वक्ता वस्तुके अनेक धर्मोमेंसे किसी एक धर्मकी मुख्यतासे वचनव्यवहार करता है । जैसे देवदत्तको एक ही समय में उसका पिता भी पुकारता है और उसका पुत्र भी पुकारता है । पिता उसे 'पुत्र' कहकर पुकारता है और उसका पुत्र उसे 'पिता' कहकर पुकारता है । किन्तु देवदत्त न केवल पिता ही है और न केवल पुत्र ही है। किन्तु पिता भी है और पुत्र भी है। इस लिये पिताकी दृष्टिसे देवदत्तका पुत्रत्वधर्म मुख्य है और शेष धर्म गौण हैं
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