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स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा
[ गा० १६७
[ छाया - अङ्गुला संख्यभागः एकाक्षचतुष्कदेह परिमाणम् । योजनसहस्रमधिकं पद्मम् उत्कृष्टकं जानीहि ॥ ] एकाक्षचतुष्कदेहपरिमाणम् एकेन्द्रियचतुष्काणां पृथिवी कायिकानाम् अपकायिकानां तेजस्कायिकानां वायुकायिकानां जीवानां प्रत्येकं चतुर्णां देहप्रमाणं शरीरांवगाहक्षेत्रं जघन्योत्कृष्टम् असंखभागो अंगुलस्यासंख्यातो भागः घनाङ्गुलस्यासंख्येयभागमात्रः ु । तथा वसुनन्दियत्याचारे प्रोक्तं च । “अंगुल असंखभागं बादरसुहुमा य सेसया काया । उक्कस्सेण दु णियमा मणुगा य तिगावदुव्विद्धा ॥" अङ्गुलं द्रव्याङ्गुलम् अष्टयवनिष्पन्नम् । अंगुलेन येऽवष्टब्धाः आकाशप्रदेशाः तेषां मध्येऽनेकस्याः प्रदेशपर्यावत् आयामः तावन्मात्रं द्रव्याङ्गुलम् । तस्य द्रव्याङ्गुलस्य असंख्यातखण्ड कृत्वा तत्रैकखण्डम् अङ्गुला संख्यातभागम् । बादरनामकर्मोदयाद्वादरा, सूक्ष्मनामकर्मोदयात् सूक्ष्माः, बादराश्च सूक्ष्माश्च बादरसूक्ष्माः, पृथिवीकायिकादयः । शेषाः कायाः, पृथिवीकायाप्कायतेजस्कायवायुकायाः, उत्कृष्टेन सुष्टु महत्त्वेन विशेषेण द्रव्याङ्गुलस्या संख्यात भागमात्रशरीराः । सर्वेऽपि बादरकायाः पृथिवीकायिका दिवायुकायान्ता द्रव्याङ्गलासंख्यात भागशरीरोत्सेधाः । सूक्ष्माश्च किंचित् हीनमात्रशरीरा घटते । मनुष्याश्च उत्तमभोगभूमिजाः त्रिगव्यूति - शरीरोत्सेधाः ॥ तथा गोम्मटसारे सूक्ष्मबादराणां पर्याप्तापर्याप्तादीनां च जघन्योत्कृष्टभेदेन बहुधा मेदोऽस्ति तत्र ज्ञातव्यः । प्रत्येकवनस्पतिकायिकेषु पउमं पद्मं कमलम् उत्कृष्टमानयुक्तं साधिकसहस्रयोजनप्रमितं जानीहि ॥ १६६ ॥ वारस - जोय-संखो कोर्स -तियं गोभियाँ समुद्दिट्ठा । भमरो जोयणमेगं सहेस्स संमुच्छिमो' मच्छो ॥ १६७ ॥
[ छाया-द्वादशयोजनः शङ्खः क्रोशत्रिकं गोभिका समुद्दिष्टा । भ्रमरः योजनमेकं सहस्रं संमूच्छिमः मत्स्यः ॥ ] द्वीन्द्रियेषु शंखः द्वादशयोजनायामः १२, चतुर्योजनमुखः ४, सपादयोजनोत्सेधः । त्रीन्द्रियेषु गोभिका, प्रैष्मिका कर्ण -
ख्यातवें भाग है । और कमलकी उत्कृष्ट अवगाहना कुछ अधिक एक हजार योजन है । भावार्थएकेन्द्रिय चतुष्क अर्थात् पृथिवीकायिक, जलकायिक, तैजस्कायिक और वायुकायिक जीवोंमेंसे प्रत्येक के शरीरकी जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना घनांगुलके असंख्यातवें भाग मात्र है । वसुनन्दि श्रावकाचार में भी एक गाथाके द्वारा इसी बातको कहा है जिसका अर्थ इस प्रकार है- 'अंगुलसे द्रव्यांगुल लेना, जो आठ यव मध्यका लिखा है । उस अंगुल प्रमाण क्षेत्रमें आकाशके जितने प्रदेश आयें उन प्रदेशोंसे बनीं अनेक प्रदेशपंक्तीयोंकी जितनी लम्बाई हो उतना द्रव्यांगुल होता है । उस द्रव्यांगुलके असंख्यात खण्ड करो | उसमेंसे एक खण्डको अंगुलका असंख्यातवां भाग कहते हैं । जिन जीवों के 1 बादर नामकर्मका उदय होता है उन्हें बादर कहते हैं और जिन जीवोंके सूक्ष्म नामकर्मका उदय होता है उन्हें सूक्ष्म कहते हैं । जितने भी बादर और सूक्ष्म पृथिवीकायिक, अष्कायिक, तैजस्कायिक और वायुकायिक जीव हैं उनके शरीरकी उत्कृष्ट ऊँचाई द्रव्यांगुलके असंख्यातवें भाग है । किन्तु बादर जीवोंसे सूक्ष्म जीवोंकी ऊँचाई कुछ कम होती है । तथा उत्तम भोगभूमिया मनुष्योंके शरीरकी ऊँचाई तीन कोस होती है । तथा गोम्मटसारमें सूक्ष्म बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त वगैरह जीवोंके जघन्य और उत्कृष्टके भेदसे बहुतसे अवगाहना के भेद बतलाये हैं सो वहाँसे जान लेना । यह तो हुआ एकेन्द्रिय चतुष्ककी अवगाहना का प्रमाण । और प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीवोंमें कमलकी उत्कृष्ट अवगाहनाका प्रमाण कुछ अधिक एक हजार योजन जानना चाहिये ॥ १६६ ॥ अर्थ-दो इन्द्रियों में शंखकी उत्कृष्ट अवगाहना बारह योजन है । तेइन्द्रियोंमें गोभिका ( कानखजूरा ) की उत्कृष्ट अवगाहना तीन कोस है । चौइन्द्रियोंमें भ्रमर की उत्कृष्ट अवगाहना एक योजन है । और पश्चेन्द्रियों में
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१ ब जोइण । २ ब कोस । ३ लमसग गुब्भिया । ४ ब जोइणमेकं । ५ लग सहस्सं, म सहस्सा। ६ लमसग समुच्छिदो
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