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-१६७] १०. लोकानुप्रेक्षा
१०७ श्चिक इत्यर्थः, क्रोशत्रिकायामा ३ समुद्दिष्टा। चतुरिन्द्रियेषु भ्रमरः एकयोजनायामः १, तद्विस्तारस्तु क्रोशत्रिकः ३, वेधस्तु द्विकोशमात्रः २। पञ्चेन्द्रियेषु मत्स्यः सन्मूर्च्छनः एकसहस्रायामः १०.०, पञ्चशतयोजन विस्तारः ५००, सार्धद्विशतयोजनोत्सेधः २५०। एतत्सर्वमुत्कृष्टमानं जानीहि। तथा गोम्मटसारे प्रोकं च । 'साहियसहस्समेकं वारं कोसूणमेकमेकं च । जोयणसहस्सदीहं पउमे वियले महामच्छे॥' एकेन्द्रियेषु खयम्भूरमणद्वीपवर्तिस्वयंप्रभाचलापरभागस्थि-- तक्षेत्रोत्पनपने साधिकसहस्रयोजनायामैकयोजनव्यासोत्कृष्टावगाहो भवति । अस्य च व्यासः योजन १, त्रिगुणः ११३ परिधिः, अयं च व्यासचतुर्था , हतः १।३। क्षेत्रफलम् । तच्च वेधेन यो १००० चतुर्भिरपवर्तितेन गुणित योजनात्मक खातफलं भवति ७५० ॥ द्वीन्द्रियेषु तत्स्वयम्भूरमणवर्तिशंखे द्वादशयोजनायामयोजनपञ्चचतुर्थोऽशोत्सेधः ५ चतुर्योजनमुखव्यासोत्कृष्टावगाहो भवति । अस्य च व्यासः यो०. १२ तावद्गुणितो १४४, वदन ४, दल २, ऊनो १४२, मुखार्धवर्ग ४ युतः १४६, द्विगुणः २९२, चतुर्विभक्तः ७३, पञ्च गुणः ३६५ शंखखातफलम् ॥ त्रीन्द्रियेषु स्वयम्भूरमणद्वीपापरभागवर्तिकर्मभूमिप्रतिबद्धक्षेत्रे रक्तवृश्चिकजीवे योजनत्रिचतुर्भागायामः ३, तदष्टमांशव्यासः ३, तदर्घोत्सेधः ३ उत्कृष्टावगाहोऽस्ति, अस्य च भुजकोटिवधात् प्रजायते क्षेत्रफलं ३।३ तच वेधगुणं ३।३।३
४३२६४ घनफलं भवति २७॥ चतुरिन्द्रियेषु खयम्भूरमणद्वीपापरभागकर्मभूमिप्रतिबद्धक्षेत्रवर्तिभ्रमरे एकयोजनायामः१. तत्त्रि
८१९२ चतुर्भागव्यासः ३ अर्धयोजनोत्सेधः १. उत्कृष्टावगाहोऽस्ति । अस्य च भुजकोटीत्यादिनानीतं घनफलंयोजनव्यष्टमभागो भवति ॥ पञ्चेन्द्रियेषु स्वयम्भूरमणसमुद्रमध्यवर्तिमहामत्स्ये सहस्रयोजनायामः १०००पञ्चशतयोजनव्यास:५००, पञ्चाशदप्रद्विशतयोजनोत्सेधः २५० उत्कृष्टावगाहोऽस्ति । अस्य च भुजकोटीत्यादिनानीतघनफलं १२५०००००० महामत्स्यकी उत्कृष्ट अवगाहना एक हजार योजन है ॥ भावार्थ-दो इन्द्रियोंमें शंखकी लम्बाई बारह योजन है । चार योजनका उसका मुख है और सवा योजन ऊँचाई है. । तेइन्द्रियोंमें गोभिका अर्थात् कानखजूराकी लम्बाई तीन कोस बतलाई हैं । चौइन्द्रियोंमें भौरा एक योजन लम्बा है, उसका विस्तार तीन कोस है और ऊँचाई दो कोस है । पञ्चेन्द्रियोंमें मत्स्य, जो कि सम्मूर्छन है, एक हजार योजन लम्बा है, पाँच सौ योजन चौड़ा है और अढ़ाई सौ योजन ऊँचा है । यह सब उत्कृष्ट प्रमाणं है । गोम्मटसारमें भी कहा है-'वयंभूरमणके द्वीपके मध्यमें जो स्वयंप्रभ नामका पर्वत है उसके उधर कर्मभूमि है । वहाँ पर एकेन्द्रियोंमें उत्कृष्ट अवगाहनावाला कुछ अधिक एक हजार योजनका लम्बा
और एक योजन चौड़ा कमल है । उसका क्षेत्रफल इस प्रकार है-कमल गोल है । गोल वस्तुका क्षेत्रफल निकालनेका कायदा यह है-'व्याससे तिगुनी परिधि होती है । परिधिको व्यासके चौथाई भागसे गुणा करनेपर क्षेत्रफल होता है । और क्षेत्रफलको ऊँचाईसे गुणा करनेपर खात क्षेत्रफल होता है । सो कमलका व्यास एक योजन है । उसको तिगुना करनेसे तीन योजन उसकी परिधि होती है । इस परिधिको व्यासके चौथे भाग पाव योजनसे गुणा करनेपर क्षेत्रफल पौन योजन होता है । उसको कमलकी लम्बाई एक हजार योजनमें गुणाकरनेपर ३४१००० =७५० योजन कमलका क्षेत्रफल होता है । तथा दो इन्द्रियोंमें उत्कृष्ट अवगाहनवाला उसी स्वयंभूरमण समुद्रमें बारह योजन लम्बा, सवा योजन ऊँचा और चार योजन का मुख वाला शंख है । इसका क्षेत्रफल निकालनेका नियम इस प्रकार है-व्यासको व्याससे गुणित करके उसमें मुखका आधा प्रमाण घटाओ। फिर उसमें मुखके आधे प्रमाणके वर्गको जोड़ो । उसका दूना करो। फिर उसे चारका भाग दो और पाँचसे गुणाकरो। ऐसा करनेसे शंखका क्षेत्रफल निकल आता है । सो यहाँ व्यास बारह योजनको बारह योजनसे गुणाकरो
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