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खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा
[गा० १८१णाणं भूय-वियारं जो मण्णदि सो वि भूद-गहिदव्वो।
जीवेण विणा णाणं किं केण वि दीसदे' कत्थ ॥ १८१॥ [छाया-ज्ञानं भूतविकारं यः मन्यते सः अपि भूतगृहीतव्यः । जीवेन विना ज्ञानं किं केन अपि दृश्यते कुत्र ॥] यश्चार्वाकः ज्ञानं जीवः । गुणगुणिनोरभेदात् कारणे कार्योपचाराच्च ज्ञानशब्देन जीवो गृह्यते । भूतविकारं ज्ञानं पृथिध्यप्तेजोवायुविकारो जीवः मन्यते अङ्गीकरोति । सोऽपि चार्वाकः भूतगृहीतव्यः भूतैः पिशाचादिभिः गृहीतव्यः गृथिल इत्यर्थः । कत्थ वि कुत्रापि स्थाने केनापि मनुष्यादिजीवेन आत्मना विना ज्ञानं बोधः किं दृश्यते । अपि पुनः ॥ १८१॥ अथ सचेतनप्रत्यक्षकप्रमाणवादिनं जीवाभाववादिनं च चावाकं दूषयति
सच्चेयण-पच्चक्खं जो जीवं णेवे मण्णदे मूढो।
सो जीवं ण मुणंतो जीवाभावं कहं कुणदि ॥ १८२॥ [छाया-सचेतनप्रत्यक्षं यः जीवं नैव मन्यते मूढः । स जीवं न जानन् जीवाभावं कथं करोति॥] यश्चार्वाको मूढः जीवमात्मानं नैव मन्यते, जीवो नास्तीति कथयतीत्यर्थः । कीदृशं जीवम् । सचेतनं प्रत्यक्षं सत् विद्यमानं चेतनप्रत्यक्षं होती है । द्रव्यका लक्षण गुणपर्यायवान् है और गुण या पर्यायका लक्षण द्रव्याश्रयी और निर्गुण है । द्रव्यका कार्य एकत्वका और अन्वयपनेका ज्ञान कराना है, और पर्यायका कार्य अनेकत्वका और व्यतिरेकपनेका ज्ञान कराना है । अतः परिणाम, स्वभाव, संज्ञा, संख्या और प्रयोजन आदिका मेद होनेसे द्रव्य और गुण भिन्न हैं, किन्तु सर्वथा भिन्न नहीं हैं' ॥ १८०॥ चार्वाक ज्ञानको पृथिवी आदि पञ्चभूतका विकार मानता है । आगे उसका निराकरण करते हैं । अर्थ-जो ज्ञानको भूतोंका विकार मानता है उसे भी भूतोंने जकड़ लिया है; क्योंकि क्या किसीने कहीं जीवके बिना ज्ञान देखा है ॥ भावार्थ-यहां पर ज्ञानशब्दसे जीव लेना चाहिये, क्योंकि गुण और गुणीमें अभेद होनेसे अथवा ज्ञानके कारण जीवमें, कार्य ज्ञानका उपचार करनेसे जीवको ज्ञान शब्दसे कहा जा सकता है । अतः गाथाका ऐसा अर्थ करना चाहिये-जो चार्वाकमतानुयायी जीवको पृथिवी, अल, अग्नि और वायुका विकार मानता है, उसे भी भूत अर्थात् पिशाचोंने अपने वशमें कर लिया है। क्योंकि किसी भी जगह बिना आत्माके ज्ञान क्या देखा है ? चार्वाक मतमें जीव अथवा आत्मा नामका कोई अलग तत्त्व नहीं है । पृथिवी, जल, आग और वायुके मेलसे ही चैतन्यकी उत्पत्ति या अभिव्यक्ति होजाती है ऐसा उनका मत है । इसपर जैनोंका कहना है कि भूतवादी चार्वाक पर अवश्य ही भूत सवार हैं तभी तो वह इस तरहकी बात कहता है, क्योंकि जीवका खास गुण ज्ञान है । ज्ञान चैतन्यमें ही रहता है, पृथिवी आदि भूतोंमें नहीं रहता । अतः जब पृथिवी आदि भूतोंमें चैतन्य अथवा ज्ञानगुण नहीं पाया जाता तब उनसे चैतन्यकी उत्पत्ति कैसे हो सकती है; क्योंकि कारणमें जो गुण नहीं होता वह गुण कार्यमें भी नहीं होता । इसके सिवा मुर्देके शरीरमें पृथिवी आदि भूतोंके रहते हुए भी ज्ञान नहीं पाया जाता । अतः ज्ञान भूतोंका विकार नहीं है ॥ १८१ ॥ केवल एक प्रत्यक्ष प्रमाण माननेवाले और जीवका अभाव कहनेवाले चार्वाकके मतमें पुनः दूषण देते हैं। अर्थ-जो मूढ खसंवेदन प्रत्यक्षसे सिद्ध जीवको नहीं मानता है वह जीवको बिना जाने जीवका अभाव कैसे करता है?॥ भावार्थ-जो मूढ़ चार्वाक खसंवेदन अर्थात् खानुभव प्रत्यक्षसे सिद्ध जीवको नहीं मानता
१० म स ग दीसए। २ ल स ग णेय, म णय। ३ ग मण्णदि ।
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