________________
खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा
[गा० २९२पुद्गलद्रव्यस्य । ईदृशी कीदृशी शक्तिः। यया पुद्गलद्रव्यस्य शक्त्या जीवस्यात्मनः केवलज्ञानखभावी विनाशितो याति जायते वा । जीवस्य स्वरूपम् अनन्तचतुष्टयं विनाशयतीत्यर्थः । मोहाशानोत्पादस्वभावात् पुद्गलानाम् । उकं च । "कम्मई दिढघणचिक्कणइं गरुयई मेरुसमाणि । णाणवियक्खण जीवडउ उप्पहि पाडहिं ताइं॥” इति पुद्गलद्रव्यनिरूपणाधिकारः॥ २११॥ अथ धर्माधर्मयोः कृतमुपकारं निरूपयति
धम्ममधम्मं दव्वं गमण-द्वाणाण कारणं कमसो।
जीवाण पुग्गलाणं बिण्णि वि लोग-प्पमाणाणि ॥ २१२॥ [छाया-धर्मम् अधर्म द्रव्यं गमनस्थानयोः कारणं क्रमशः । जीवानां पुद्गलानां द्वे अपि लोकप्रमाणे ॥] जीवानां पुद्गलानां च गमनस्थानयोधर्मद्रव्यमधर्मद्रव्यं च क्रमेण कारणं भवति । गतिपरिणतानां जीवपुद्गलानां धर्मद्रव्यं गमनसहकारिकारणं भवति । दृष्टान्तमाह । यथा मत्स्यानां जलं गमनसहकारिकारणं तथा धयोस्तिकायः। खयं तान् जीवपुद्गलान् तिष्ठतः नैव नयति । तथाहि, यथा सिद्धो भगवान् अमूर्तो निःक्रियस्तथैवाप्रेरकोऽपि सिद्धवदनन्तज्ञानादिगुणखरूपोऽहमित्यादिव्यवहारेण सविकल्पसिद्धभक्तियुक्तानां निश्चयेन निर्विकल्पसमाधिरूपखकीयोपादान
कौका बन्ध होता हैं। ये कर्म पौद्गलिक होते हैं । इन कर्मोंका निमित्त पाकर जीवको नया जन्म लेना पडता है । नया जन्म लेनेसे नया शरीर मिलता है । शरीरमें इन्द्रियां होती हैं । इन्द्रियोंके द्वारा विषयोंको ग्रहण करता है। विषयोंको ग्रहण करनेसे इष्ट विषयोंसे राग और अनिष्ट विषयोंसे द्वेष होता है। इस तरह राग-द्वेषसे कर्मबन्ध और कर्मबन्धसे राग-द्वेषकी परम्परा चलती है। इसके कारण जीवके खाभाविक गुण विकृत होजाते हैं, इतना ही नहीं, किन्तु ज्ञानादिक गुण कमोसे आकृत हो जाते हैं । कोसे ज्ञानादिक गुणोंके आकृत होजानेके कारण एक साथ समस्त द्रव्य पर्यायोंको जाननेकी शक्ति रखनेवाला जीव अल्पज्ञानी होजाता है। एक समयमें वह एक द्रव्यकी एक ही स्थूल पर्यायको मामूली तौरसे जान पाता है। इसीसे ग्रन्थकारका कहना है कि उस पुद्गलकी शक्ति तो देखो जो जीवकी शक्तिको भी कुण्ठित कर देता है। पौद्गलिक कर्मों की शक्ति बतलाते हुए परमात्मप्रकाशमें मी कहा है-'कर्म बहुत बलवान हैं, उनको नष्ट करना बड़ा कठिन है, वे मेरुके समान अचल होते हैं और ज्ञानादि गुणसे युक्त जीवको खोटे मार्गमें डाल देते हैं।॥ २११ ॥ आगे धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्यके उपकारको बतलाते हैं । अर्थ-धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य जीव और पुद्गलों के क्रमसे गमनमें तथा स्थितिमें कारण होते हैं । तथा दोनों ही लोकाकाशके बराबर परिमाणवाले हैं ॥ भावार्थ-जैसे मछलियोंके गमनमें जल सहकारी कारण होता है वैसे ही गमन करते हुए जीवों
और पुद्गलोंके गमनमें धर्मद्रव्य सहकारी कारण होता है। किन्तु वह ठहरे हुए जीव-पुद्गलोंको जबरदस्ती नही चलाता है । इसका खुलासा यह है कि जैसे सिद्ध परमेष्ठी अमूर्त, निष्क्रिय और अप्रेरक होते हैं, फिर भी 'सिद्धकी तरह मैं अनन्त ज्ञानादि गुणखरूप हूं' इत्यादि व्यवहार रूपसे जो सिद्धोंकी सविकल्प भक्ति करते हैं, अथवा निश्चयसे निर्विकल्प समाधिरूप जो अपनी उपादान शक्ति है, उस रूप जो परिणमन करते हैं उनकी सिद्ध पद प्राप्तिमें वह सहकारी कारण होते हैं, वैसे ही अपनी उपादान शक्तिसे गमन करते हुए जीव और पुद्गलोंकी गतिका सहकारी कारण धर्मद्रव्य है । अर्थात् गमन करनेकी शक्ति तो जीव और पुद्गल द्रव्यमें खभावसे ही है । धर्मद्रव्य उनमें वह शक्ति पैदा
-
-
१लोय।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org