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१०. लोकानुप्रेक्षा
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[ छाया -मः अन्योन्यप्रवेशः जीव प्रदेशानां कर्मस्कन्धानाम् । सर्वबन्धानाम् अपि लयः स बन्धः भवति जीवस्य ॥ ] जीवस्य संसारिप्राणिनः स प्रसिद्धः बन्धो भवति कर्मणां बन्धः स्यात् । स कः । यः जीवप्रदेशानां लोकमात्राणाम् असंख्यात प्रमितानां कर्मस्कन्धानां कार्मणवर्गणानां सिद्धानन्तैकभागानाम् अभव्यसिद्धादनन्तगुणानाम् अन्योन्यं प्रवेशः परस्परं प्रवेश एकस्मिन्नात्मप्रदेशे अनन्तानां पुद्गलस्कन्धानां प्रवेशः स प्रदेशबन्धो भवति । अपि पुनः, सर्वबन्धानां प्रकृतिस्थित्यनुभागबन्धानां लओ लयः लीनश्च । उक्तं च । " जीवपएसेकेके कम्मपएसा हु अंतपरिहीणा । होंति घणा णिविडभुवो संबंधो होइ णायव्वो ॥” जीवराशिरनन्तः प्रत्येकमेकैकस्य जीवस्यासंख्याताः प्रदेशा आत्मनः एकैकस्मिन् प्रदेशे कर्मप्रदेशा, हु स्फुटम्, अंतपरिहीणा इति अनन्ता भवन्ति । एतेषाम् आत्मकर्मप्रदेशानां सम्यग्बन्धो भवति । स बन्धः किंलक्षणो ज्ञातव्यः । घनः निबिडभूतः घनवत्, लोहमुद्गरवत् निबिडभूतः दृढतर इत्यर्थः । इति तथा च नामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषात् सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाहस्थिताः सर्वात्मप्रदेशेष्वनन्तानन्तप्रदेशाः इति बन्धः ॥२०३॥ अथ सर्वेषु द्रव्येषु जीवस्य परमतत्त्वं निगदति
उत्तम - गुणाण धामं सब-दवाणे उत्तमं दवं ।
तच्चाण परम-तचं जीवं जाणेहे णिच्छयदो ॥ २०४ ॥
[ छाया-उत्तमगुणानां धाम सर्वद्रव्याणाम् उत्तमं द्रव्यम् । तत्त्वानां परमतत्त्वं जीवं जानीत निश्चयतः ॥ ] निश्चयतो निश्चयनयमाश्रित्य जानीहि । कम् । उत्तमगुणानां धाम जीवम, केवलज्ञानदर्शनानन्त सुखवीर्यादिगुणानां सम्यक्त्वाद्यष्टगुणानां चतुरशीतिलक्षगुणानाम् अनन्तगुणानां वा धाम स्थानं गृहमाधारभूतम् आत्मानं बुध्यस्व स्वम् । सर्वेषां द्रव्याणां मध्ये उत्तमं द्रव्यम् उत्कृष्टं वस्तु जीवं जानीहि । अजीवधर्माधर्माकाशकालानां जडत्वमचेतनत्वं च लोहे के मुद्गरकी तरह मजबूत जो सम्बन्ध होता है वही बन्ध है । तत्त्वार्थ सूत्रमें प्रदेशबन्धका स्वरूप इस प्रकार बतलाया है - प्रदेशबन्धका कारण सब कर्म प्रकृतियां ही हैं, उन्हीं की वजहसे कर्मबन्ध होता है । तथा वह योगके द्वारा होता है और सब भवोंमें होता है । जो कर्मस्कन्ध कर्मरूप होते हैं वे सूक्ष्म होते हैं, आत्माके साथ उनका एक क्षेत्रावगाह होता है । बन्धनेपर वे आत्मामें आकर ठहर जाते हैं और आत्मा सब प्रदेशोंमें हिलमिल जाते हैं तथा अनन्तानन्त प्रदेशी होते हैं । जो आत्मा कर्मों से बंधा हुआ है उसीके प्रतिसमय अनन्तानन्त प्रदेशी कर्मस्कन्धोंका बन्ध हुआ करता है । बन्धके चार भेद हैं- प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध । प्रकृति नाम स्वभावका है । कालकी मर्यादाको स्थिति कहते हैं । फल देनेकी शक्तिका नाम अनुभाग है और प्रदेशोंकी संख्याका परिमाण प्रदेशबन्ध है । ये चारों बन्ध एक साथ होते हैं। जैसे ही अनन्तानन्त प्रदेशी कर्मस्कन्धोंका आत्माके प्रदेशोंके साथ सम्बन्ध होता है तत्कालही उनमें ज्ञानको घातने आदिका स्वभाव पड़ जाता है, वे कबतक आत्मा के साथ बंधे रहेंगे इसकी मर्यादा बन्धजाती है और फलदेनेकी शक्ति पड़ जाती है । अतः प्रदेशबन्धके साथही शेष तीनों बन्ध हो जाते हैं । इसीसे यह कहा है कि प्रदेशबन्ध में ही सब बन्धोंका लय है ॥२०३॥ आगे कहते हैं कि सब द्रव्योंमें जीव ही परम तत्त्व है। अर्थ-जीव ही उत्तमगुणोंका धाम है, सब द्रव्योंमें उत्तम द्रव्य है और सब तत्त्वों में परमतत्त्व है, यह निश्चयसे जानो || भावार्थ - निश्वयनयसे अपनी आत्माको जानो। यह आत्मा केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनन्त सुख, अनन्तवीर्य आदि गुणोंका, अथवा सम्यक्त्व, दर्शन, ज्ञान, अगुरुलघु, अवगाहना, सूक्ष्मत्व, वीर्य, अव्याबाध इन आठ गुणोंका, अथवा चौरासी लाख गुणों अथवा अनन्त गुणोंका आधार है । सब द्रव्योंमें यही उत्तम द्रव्य है क्योंकि अजीव द्रव्य - धर्म, अधर्म, काल, आकाश और पुद्गल तो जड़ हैं
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१ [ सव्वद्दव्वाण ] | २ ब जाणेहि (१) । कार्त्तिके० १८
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