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३. संसारानुप्रेक्षा णेरइयादि-गदीणं अवर-ट्रिदिदो वर-द्विदी जाव'।
सव्व-ट्ठिदिसु वि जम्मदि जीवो गेवेज-पजंतं ॥७॥ [छाया-नैरयिकादिगतीनाम् अपरस्थितितः वरस्थितिं यावत् । सर्वस्थितिष्वपि जायते जीवः प्रैवेयकपर्यन्तम् ॥1 जीवः संसार्यात्मा नरकादिगतीनां चतसृणाम् अवरस्थितितः जघन्यस्थितिमारभ्य उत्कृष्टस्थितिपर्यन्तम् । तथा हि नरकगतो जघन्यायुर्दशसहस्रवर्षाणि, तेनायुषा तत्रोत्पन्नः पुनः संसारे भ्रान्त्वा तेनैवायुषा तत्रोत्पन्नः । एवं दशवर्षसहनसमयवाई तत्र चोत्पन्नो मृतश्च। पुनः एकैकसमयाधिक्येन त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि परिसमाप्यन्ते। पश्चात्तिर्यग्गती अन्तर्मुहर्तायुषोत्पन्नः प्राग्वत् तत्समयवारम् उत्पन्नः समयाधिक्येन त्रिपल्योपमानि तेनैव जीवन परिसमाप्यन्ते । एवं मनुष्यगतावपि । नरकगतिवत् देवगतावपि । तत्राय विशेषः। उत्कर्षतः एकत्रिंशत्सागरोपमाणि परिसमाप्यन्ते । एवं भ्रान्त्वागत्य पूर्वोक्तजघन्यस्थितिको नारको जायते । तदेतत्सर्व समुदितं भवपरिवर्तनम् । उक्तं च । 'णिरयाउवा जहण्णा जीवर्दू उवरिल्लयादु गेवज्जो। जीवो मिच्छत्तवसा भवट्ठिदे हिंडिदो बहुसो ॥ ७॥ अथ भावपरिवर्तनं निरूपयति
परिणमदि सण्णि-जीवो विविह-कसाएहिं ठिदि-णिमित्तेहिं ।
अणुभाग-णिमित्तेहि य वस॒तो भाव-संसारे ॥७१ ॥ अब भवपरिवर्तनको कहते हैं । अर्थ-संसारी जीव नरकादिक चार गतियोंकी जघन्य स्थितिसे लेकर उकृष्ट स्थितिपर्यन्त सब स्थितियोंमें ग्रैवेयक तक जन्म लेता है ॥ भावार्थ-नरकगतिमें जघन्य आयु दस हजार वर्षकी है। उस आयुको लेकर कोई जीव प्रथम नरकमें उत्पन्न हुआ और आयु पूर्ण करके मर गया । पुनः उसी आयुको लेकर वहाँ उत्पन्न हुआ और मर गया । इस प्रकार दस हजार वर्षके जितने समय हैं, उतनी बार दस हजार वर्षकी आयु लेकर प्रथम नरकमें उत्पन्न हुआ। पीछे एक समय अधिक दस हजार वर्षकी आयु लेकर वहाँ उत्पन्न हुआ। फिर दो समय अधिक दस हजार वर्षकी आयु लेकर उत्पन्न हुआ । इस प्रकार एक एक समय बढ़ाते बढ़ाते नरकगतिकी उत्कृष्ट आयु तेतीस सागर पूर्ण करता है । फिर तिर्यश्चगतिमें अन्तर्मुहूर्तकी जघन्य आयु लेकर उत्पन्न हुआ और पहलेकी ही तरह अन्तर्मुहूर्तके जितने समय होते हैं, उतनी बार अन्तर्मुहूर्तकी आयु लेकर वहाँ उत्पन्न हुआ । फिर एक एक समय बढ़ाते बढ़ाते तिर्यञ्चगतिकी उत्कृष्ट आयु तीन पल्य समाप्त करता है । फिर तिर्यश्चगति ही की तरह मनुष्यगतिमें भी अन्तर्मुहूर्तकी जघन्य आयुसे लेकर तीन पल्यकी उत्कृष्ट आयु समाप्त करता है । पीछे नरकगतिकी तरह देवगतिकी आयुको भी समाप्त करता है। किन्तु देवगतिमें इतनी विशेषता है कि वहाँ इकतीस सागरकी ही उत्कृष्ट आयुको पूर्ण करता है, क्योंकि प्रैवेयकमें उत्कृष्ट आयु इकतीस सागरकी होती है, और मिथ्यादृष्टियोंकी उत्पत्ति अवेयक तक ही होती है। इस प्रकार चारों गतियोंकी आयु पूर्ण करनेको भवपरिवर्तन कहते हैं । कहा भी है-'नरककी जघन्य आयुसे लेकर ऊपरके अवेयक पर्यन्तके सब भवोंमें यह जीव मिथ्यात्वके आधीन होकर अनेक बार भ्रमण करता है।' ॥ ७० ॥ अब भावपरिवर्तनको कहते हैं । अर्थ-सैनीजीव जघन्य आदि उत्कृष्ट स्थितिबन्धके कारण तथा अनु
१ग अवरिट्रिदिदो परिट्रिदी। २ब जाम। ३म भावे भवे] | ब प्रतिमें इस गाथाके बीच और बाद नातेके कुछ शब्द लिखे गये है, इसलिए किसी दूसरेने हासियेमें यह गाथा लिखी है। गाथाके अन्तमें भवो' शब्द है । ४ [जावदु] ५० स ग संसारो। ६ व भावसंसारो, म भाव ।
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