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स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा
[गा० १२८प्रतिष्ठितप्रत्येकाः भवन्ति । प्रतिष्ठितं साधारणशरीरैराश्रित प्रत्येकशरीर येषां ते प्रतिष्ठितप्रत्येकशरीराः । ते के इति चेद्, गोम्मटसारे प्रोक्तं च। मूलग्गपोरबीजा कंदा तह खंदबीजबीजरूहा। समुच्छिमा य भणिया पत्तेयाणंतकाया य॥ मूलं बीजं येषां ते मूल बीजाः, आईकहरिद्रादयः। १। अयं बीजं येषां ते अग्रबीजाः, आर्यकोदीच्यादयः ।। पर्वबीजाः इक्षुवेत्रादयः ।३। कन्दबीजाः पिण्डालूसूरणादयः । ४ । स्कन्धबीजाः सल्लकीकण्टकीपलाशादयः ।। बीजा रोहन्तीति बीजरुहाः, शालिगोधूमादयः । ६। [संमूर्छ समन्तात् प्रसृतपुद्गलस्कन्धे भवाः] संमूर्छिमाः।। अनन्तानां निगोदजीवानां कायाः शरीराणि येष्वित्वनन्तकायाः प्रतिष्ठितप्रत्येका भवन्ति । तथा । 'गूढसिरसंधिपर्व समभंगमहीरहं च छिण्णरुहं । साहारण सरीरै तविवरीयं च पत्तेयं ॥ यत्प्रत्येकशरीरै गूढशिरम् अदृश्यबहिःस्नायुकम् ।१। अदृश्यसंधिरेखाबन्धम् । २ । अदृश्यप्रन्थिकम् । ३ । समभङ्ग त्वग्गृहीतत्वेन सदृशच्छेदम् । ४ । अहीरकम् अन्तगेतसूत्ररहितं ५। छिन्नं रोहतीति छिन्नरूह च।६। तत्साधारणं साधारणजीवाश्रितत्वेन साधारणमित्युपचयेते, प्रतिष्ठितशरीरमित्यर्थः। तद्विपरीतम् अप्रतिष्ठितप्रत्येकशरीरमिति। तथा। 'मूले कन्दे छल्लीपवालसालदलकुसुमफलबीजे। समभंगे सदि गंता असमे सदि होति पत्तेया॥' मूले कन्दे त्वचि पालवाङ्करे क्षुद्रशाखायां पत्रे कुसुमे फले बीजे च समभने सति अनन्ताः अनन्तकायाः, प्रतिष्ठितप्रत्येकशरीरा इत्यर्थः । मूलादिषु समभङ्गरहितवनस्पतिषु अप्रतिष्ठितप्रत्येकशरीरा भवन्ति । तथा । 'कंदस्सव मूलस्स व सालाखंदस्स वावि बहुलतरी। छल्ली साणंतजिया पत्तेयजिया तु तणुकदरी ॥ येषां प्रत्येकवनस्पतीना कन्दस्य वा मूलस्य वा शालाया वा क्षुद्रशाखाया वा स्कन्धस्य वा या त्वक् बहुतरी स्थूलतरी स्यात् , ते वनस्पतयोऽनन्तकायजीवा भवन्ति। निगोदसहितप्रतिष्ठितप्रत्येका भवन्तीत्यर्थः। तु पुनः। येषां कन्दादिषु त्वक् तनुतरी ते बनस्पतयो अप्रतिष्ठित प्रत्येकशरीरा भवन्तीत्यर्थः । अथ प्रकृतव्याख्यामाह। प्रत्येकवनस्पतयः द्विप्रकाराः। एके निगोदसहिताः साधारणैः संयुक्ताः प्रतिष्ठितप्रत्येकवनस्पतयो भवन्ति । तेषां लक्षणं गाथाचतुष्कणोक्तम् । तहेव तथैव, रहिया
हिताश्च साधारणरहिता इत्यर्थः, अप्रतिष्ठितप्रत्येकाः । प्रतिष्ठितं साधारणशरीरैराश्रितं प्रत्येकशरीरं येषां ते प्रतिष्ठितप्रत्येकशरीराः पूर्वोक्ताः । तैरनाश्रितशरीरा अप्रतिष्ठितप्रत्येकशरीराः स्युः । ते के । तालनालिकर
अर्थ-प्रत्येक वनस्पति कायिक जीव दो प्रकार के होते हैं-एक निगोद सहित, दूसरे निगोद रहित । त्रस जीव भी दो प्रकारके होते हैं-एक दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चौइन्द्रिय, दूसरे पश्चेन्द्रिय ॥ भावार्थ-प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकारके होते हैं। एक निगोंद सहित अर्थात् जिसके आश्रय अनेक निगोदिया जीव रहते हैं। ऐसे प्रत्येक वनस्पतिको सप्रतिष्ठित प्रत्येक कहते हैं। गोम्मटसारमें कहा है-वनस्पतियाँ ७ प्रकारकी होती हैं-मूलबीज, अग्रबीज, पर्वबीज, कंदबीज, स्कन्धबीज, बीजरह और सम्मूर्छन । जिन वनस्पतियोंका बीज उनका मूल ही होता है उन्हें मूलबीज कहते हैं। जैसे अदरक हल्दी वगैरह । जिन वनस्पतियोंका बीज उनका अग्रभाग होता है उन्हें अग्रबीज कहते हैं । जैसे नेत्रबाला वगैरह । जिन वनस्पतियोंका बीज उनका पर्वभाग होता है उन्हें पर्वबीज कहते हैं जैसे ईख, बेंत वगैरह । जिन वनस्पतियोंका बीज कंद होता है उन्हें कैदबीज कहते हैं। जैसे रताल, सूरण वगैरह । जिन वनस्पतियोंका बीज उनका स्कन्धभाग होता है उन्हें स्कन्धबीज कहते हैं । जैसे सलई, पलाश वगैरह । जो वनस्पतियां बीजसे पैदा होती हैं उन्हें बीजरुह कहते हैं। जैसे धान, गेहूं वगैरह । और जो वनस्पति स्वयं ही उग आती है वह सम्मूर्छन कही जाती हैं। ये वनस्पतियां अनन्तकाय अर्थात् सप्रतिष्ठित प्रत्येक मी होती हैं और अप्रतिष्ठित प्रत्येक भी होती हैं ॥१॥ जिस प्रत्येक वनस्पतिकी धारियां, फांके और गांठे दिखाई न देती हों, जिसे तोड़नेपर खटसे दो टुकड़े बराबर २ हो जायें और बीचमें कोई तार वगैरह न लगा रहे तथा जो काट देने पर भी पुनः उग आये वह साधारण अर्थात् सप्रतिष्ठित प्रत्येक है। यहां सप्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर
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