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खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा
[गा० ११९[छाया-सप्तैकपञ्चैकाः मृले मध्ये तथैव ब्रह्मान्ते । लोकान्ते रजवः पूर्वापरतश्च विस्तारः ॥] लोकस्येत्यध्याहार्यम् । पूर्वापरतः पूर्वी दिशामाश्रित्य पश्चिमां दिशामाश्रित्य च विस्तारः व्यासः । भूले त्रिलोकस्याधोभागे पूर्वपश्चिमेन सप्तरजु विस्तारः ७ । तथैव प्रकारेण मध्ये अधोभागात्कमहानिरूपेण हीयते यावन्मध्यलोके पूर्वापरतः एका एकरजुप्रमाणविस्तारः । तथैव भंते, ततो मध्यलोकादूचं ऋमवृद्ध्या वर्तते यावद् ब्रह्मलोकान्ते पूर्वपश्चिमेन रजुपञ्चविस्तारः ५। लोयंते, ततश्चोर्ध्व पुनरपि हीयते यावल्लोकान्ते लोकोपरिमभागे पूर्वापरतः एकर जप्रमाणविस्तारो १ भवति ॥ ११ ॥ अथ दक्षिणोत्तरतः कियन्मात्र इत्युक्ते प्राह
दक्खिण-उत्तरदो पुणे सत्त वि रजू हवंति सवत्थ ।।
उर्ल्ड' चउदह रजू सत्त वि रज्जू घणो लोओ ॥ ११९॥ [छाया-दक्षिणोत्तरतः पुनः सप्तापि रज्जवः भवन्ति सर्वत्र । ऊर्ध्वः चतुर्दश र जवः सप्तापि रजवः घनः लोकः ।। पुनः दक्षिणोत्तरपार्श्वमाश्रित्य स चतुर्दश १४ रज्जूत्सेधपर्यन्तं व्यास आयामः सप्तरजुरेव भवति । लोकस्योदयः कियन्मात्र इति चेदूर्ध्वः चतुर्दशरज्जुदयरूपः १४ लोको भवति । सर्वलोकस्य क्षेत्रं कियन्मात्रम्। सप्तरज्जुघनः सप्तरजूनां घनः त्रिवारगणनम् । 'त्रिसमाहतिर्घनः' स्यादिति वचनात् । जगच्छेणि = घनः = ३४३ प्रमाणः सर्वलोकः त्रिशतरज्जुमात्रः त्रिचत्वारिंशदधिकः ३४३ इत्यर्थः । तावदधोलोकस्य मानमानीयते । 'मुहभूमीजोगदले पदगुणिदे पदघणं होदि।' मुखं एकरजुः १, भूमिस्तु सप्तरजः ७, तयोर्योगः ८, तद्दलं ४, पदेन सप्तभिः ७, गुणिते २८, वेधेन ७ गुणिते १९६ । एवमूर्ध्वलोकमानमानेतव्यम् १४७ । सर्व इत्यर्थः ३४३ ॥११९ ॥ अथ त्रिलोकस्योदयं विभजति
मेरुस्स हिट्ठ-भाएँ सत्त वि रजू हवेइ अह-लोओ।
उड्डम्मि उड्ड-लोओ मेरु-समो मज्झिमो लोओ ॥ १२० ॥ ओर रखकर यदि खड़ा हो तो उसका जैसा आकार होता है, वैसा ही आकार लोकका जानना चाहिये अतः पुरुषका आकार लोकके समान कल्पना करके उसका पूरब - पश्चिम विस्तार इस प्रकार जानना चाहिये । पञ्जोंके अन्तरालका विस्तार सातराजू है। कटिप्रदेशका विस्तार एक राजू है । दोनों हाथोंका-एक कोनीसे लेकर दूसरी कोनी तकका-विस्तार पाँच राजू है । और ऊपर, शिरोदेशका विस्तार एक राजू है ॥ ११८ ॥ अब लोकका दक्षिण-उत्तरमें विस्तार कहते हैं । अर्थ-दक्षिण - उत्तर दिशामें सब जगह लोकका विस्तार सात राजू है । उँचाई चौदह राजु है और क्षेत्रफल सात राजूका धन अर्थात् ३४३ राजू है ॥ भावार्थ-पूरव - पश्चिम दिशामें जैसा घटता बढ़ता विस्तार है, वैसा दक्षिणउत्तर दिशामें नहीं है । दक्षिण उत्तर दिशामें सब जगह सात राजू विस्तार है । तथा लोककी नीचेसे ऊपर तक उँचाई चौदह राजू है और लोकका क्षेत्रफल सात राजूका घन है । तीन समान राशियोंको परस्परमें गुणा करनेसे घन आता है । अतः सात राजूका घन ७४७४७=३४३ राजू होता है । इस क्षेत्रफलकी रीति निम्न प्रकार है । पहले अधोलोकका क्षेत्रफल निकालते हैं । त्रिलोकसारमें कहा है कि "जोगदले पदगुणिदे फलं घणो वेधगुणिदफटं ॥ ११४॥" मुख और भूमिको जोड़कर उसका आधा करो, और उस आधेको पदसे गुणा करदो तो क्षेत्रफल होता है और क्षेत्रफलको उँचाईसे गुणाकरनेपर घन फल होता है । इस रीतिके अनुसार मुख १ राजू, भूमि ७ राजू , दोनों को जोडकर ७+१८ आधा करनेसे ४ होते हैं। इस ४ राजूको पद-दक्षिण उत्तर विस्तार ७ राजूसे गुणा करनेपर ४४७=२८ राजू क्षेत्रफल होता है । और इस क्षेत्रफलको अधोलोककी उँचाई सात राजूसे गुणा
१ ब पुणु । २ ल स ग हवेति। ३ ब उद्द [?], ल म ग उहो, स उद्दो। ४ ल स ग चउदस, म चउद्दस । ५कग भागे। ६ ब हवेइ महो लोउ [?], ल स ग हवे अहो लोओ, म हवेइ अह लोउ ।
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