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खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा
[गा० ३६द्वितीयं शारीरं शरीरे देहे छेदन मेदनादिभवम् । तथा मानसं मनसि भवम् । विविधम् अनेकप्रकार क्षेत्रोद्भवं भूमिस्पर्शशीतोष्णवातवैतरणीमज्जनशाल्मलीपत्रपातकुम्भीपाकादिभवम् । च पुनः, [तीव्र ] दुःसहं सोढुमशक्यम् अन्योन्यकृतं नारकैः परस्परं शूलारोपणकुन्तखगच्छेदनादिकृतं निष्पादितम् । च-शब्दः समुच्चयार्थे ॥३५॥
छिज्जइ तिल-तिल-मित्तं भिंदिजइ तिल-तिलंतरं सयलं ।
वजग्गीऍ कढिजइ णिहप्पए पूय-कुंडम्हि ॥ ३६॥ [छाया-छिद्यते तिलतिलमात्रं भिद्यते तिलतिलान्तरं सकलम् । वज्राग्निना क्वथ्यते निधीयते पूतिकुण्डे ॥] छिद्यते खण्डीक्रियते शरीरं तिलतिलमात्रं तिलतिलप्रमाणखण्डम् , भिद्यते विदार्यते सकलं तरीमतिशयेन समस्तं तिलतिलम् । पूर्व तिलतिलमात्रं कृतं तदपि पुनः पुनः छिद्यते । कढिज्जइ क्वथ्यते पच्यते, क्वथ् निष्पाके, अस्य धातोः प्रयोगः। क्व। वज्रामों वज्ररूपवैश्वानरे निक्षिप्यते प्रक्षेपः क्रियते । क। पूयकुण्डे ॥ ३६॥
इच्चेवमाइ-दुक्खं जं णरएँ सहदि एय-समयम्हि ।
तं सयलं वण्णे, ण सक्कदे सहस-जीहो वि ॥ ३७॥ दूसरोंको लड़ाने-भिड़ानेमें बड़ा आनन्द आता है। ये तीसरे नरकतक जा सकते हैं । वहाँ जाकर ये नारकियोंको अनेक तरहका कष्ट देते हैं और उन्हें लड़ने झगड़नेके लिये उकसाते हैं। एक तो वे यों ही आपसमें मारते काटते रहते हैं, उसपर इनके उकसानेसे उनका क्रोध और भी भड़क उठता है । तब वे अपनी विक्रियाशक्तिके द्वारा बनाये गये भाला तलवार आदि शस्त्रोंसे परस्परमें मार-काट करने लगते हैं। इससे उनके शरीरके टुकड़े टुकड़े होजाते हैं, किन्तु बादको वे टुकड़े पारेकी तरह आपसमें पुनः मिल जाते हैं । अनेक प्रकारकी शारीरिक वेदना होनेपर भी उनका अकालमें मरण नहीं होता। कभी कमी वे सोचते हैं, कि हम न लड़ें, किन्तु समयपर उन्हें उसका कुछ भी ध्यान नहीं रहता । इस लिये भी उनका मन बड़ा खेदखिन्न रहता है । इन दुःखोंके सिवाय उन्हें नरकके क्षेत्रके कारण भी बहुत दुःख सहना पडता है । क्योंकि ऊपरके नरक अत्यन्त गर्म हैं तथा पाँचवें नरकका नीचेके कुछ भाग, छटे तथा सातवें नरक अत्यन्त ठंडे हैं । उनकी गर्मी और सर्दीका अनुमान इससे ही किया जा सकता है, यदि सुमेरुपर्वतके बराबर ताम्बेके एक पहाड़को गर्म नरकोंमें डाल दिया जाये तो वह क्षणभरमें पिघलकर पानीसा होसकता है । तथा उस पिघले हुए पहाड़को यदि शीत नरकोंमें डाल दिया जाये तो वह क्षणभरमें कड़ा होकर पहलेके जैसा हो सकता है । इसके सिवाय वहाँकी घास सुईकी तरह नुकीली होती है । वृक्षोंके पत्ते तलवारकी तरह पैने होते हैं । वैतरणी नामकी नदी खून, पीव जैसी दुर्गन्धित वस्तुओंसे परिपूर्ण होती है । उसमें अनेक प्रकारके कीड़े बिलबिलाते रहते हैं। जब कोई नारकी उन वृक्षोंके नीचे विश्राम करनेके लिये पहुँचता है तो हवाके झोकेसे वृक्षके हिलते ही उसके तीक्ष्ण पत्ते नीचे गिर पड़ते हैं और विश्राम करनेवालेके शरीरमें घुस जाते हैं । वहाँसे भागकर शीतल जलकी इच्छासे वह नदीमें घुसता है, तो दुर्गन्धित पीव और कीड़ोंका कष्ट भोगना पड़ता है । इस प्रकार नरकमें पाँच प्रकारका दुःख पाया जाता है ॥ ३५॥ अर्थ-शरीरके तिल तिल बराबर टुकड़े कर दिये जाते हैं । उन तिल तिल बराबर टुकड़ोंको भी भेदा जाता है । वज्राग्निमें पकाया जाता है। पीवके कुण्डमें फेंक दिया जाता है ॥ ३६॥ अर्थ-इस प्रकार नरकमें छेदन-भेदन आदिका जो दुःख
१ ब वजग्गिइ । २ ब कुंडंमि, स कुंडम्मि। ३ ब निरइ । ४ ब समियंमि, म समयंमि(?) ।
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