________________
अध्र व-अनुप्रेक्षा पदार्थोंसे [ अइलालिओ वि ] अत्यन्त लालन पालन किया हुआ भी [ जलभरिओ ] जलसे भरे हुए [ आमघडओव्व ] कच्चे घड़ेकी तरह [खणमित्तण वि ] क्षणमात्रमें हो [ विहडइ ] नष्ट हो जाता है ।
भावार्थ:-ऐसे शरीरमें स्थिर बुद्धि करना बड़ी भूल है। अब लक्ष्मीकी अस्थिरता दिखाते हैं
जा सासया ण लच्छी, चकहराणं पि पुण्णवंताणं ।
सा किं बधेइ रई, इयर-जणाणं अपुण्णाणं ॥१०॥ अन्वयार्थः-[ जा लच्छी ] जो लक्ष्मी ( सम्पदा ) [ पुण्णवंताणं चकहराणं पि ] पुण्यके उदय सहित चक्रवर्तियोंके भी [ सासया ण ] नित्य नहीं है [सा ] वह ( लक्ष्मी ) [ अपुण्णाणं इयरजणाणं] पुण्यहीन अथवा अल्प पुण्यवाले अन्य लोगोंसे [किं रइं बंधेइ ] कैसे प्रेम करे ? अर्थात् नहीं करे ।
भावार्थः-(अपने त्रैकालिक पूर्ण ज्ञानानन्दमय आत्मलक्ष्मीको भूल जाना ही बड़ा दुःख है । अतः) इस लक्ष्मीका अभिमान कर यह प्राणी प्रेम करता है सो वृथा है ।
आगे इसी अर्थको विशेषरूपसे कहते हैं:
कत्थ वि ण रमइ लच्छी, कुलीण-धीरे वि पंडिए सूरे । पुज्जे धम्मिटे वि य, सुवत्त-सुयणे महासत्ते ॥११॥
अन्वयार्थः-[ लच्छी ] यह लक्ष्मी [ कुलीणधीरे वि पंडिए सूरे ] कुलवान्, धैर्यवान्, पण्डित, सुभट [ पुज्जे धम्मि? वि य ] पूज्य, धर्मात्मा [ सुवत्त-सुयणे महासत्ते] रूपवान्, सुजन, महापराक्रमी इत्यादि [ कत्थवि ण रमइ ] किसी भी पुरुषसे प्रेम नहीं करती है।
भावार्थः-कोई समझे कि मैं बड़ा कुलवान् हैं, मेरे बड़ोंकी सम्पत्ति है, वो कहाँ जाती है ? तथा मैं धैर्यवान हूँ, कैसे गमाऊंगा? तथा पण्डित हूँ, विद्वान हूँ, मेरी कौन लेगा? उलटा मुझको तो देवेहीगा तथा मैं सुभट हूं, कैसे किसीको लेने दूंगा? तथा मैं पूजनीक हूं मेरी कौन लेवे है ? तथा मैं धर्मात्मा हूँ, धर्मसे तो आती है, आई हुई कहां जाती है ? तथा मैं बड़ा रूपवान् हूँ, मेरा रूप देखकर ही जगत प्रसन्न है, लक्ष्मी कहां जाती है ? तथा मैं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org