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आस्रवानुप्रेक्षा
भावार्थ:: - ( देहादिके) केवल विचारहीसे जिसको वैराग्य प्रगट होता हो तो उसके यह भावना सत्यार्थ कहलाती है ।
* दोहा *
स्वपर देहकू अशुचि लखि, तजै तास अनुराग । ताकै सांची भावना, सो कहिये बड़भाग || ६ ॥
-:: इति अशुचित्वानुप्रेक्षा समाप्ता ::
आस्रवानुप्रेक्षा
मणवयणकायजोया, जीवपयेसाणफंद विसेसा । जुत्ता, विजुदा वि य आसवा होंति ॥८८॥
मोहोद
अन्वयार्थः–[ मणवयणकायजोया ] मन वचन काय योग हैं [ आसवा होंति ] वे ही आस्रव हैं । कैसे हैं ? [ जीवपयेसाणफंदणविसेसा ] १ जीवके प्रदेशोंका स्पंदन ( चलायमान होना, कांपना ) विशेष है वह ही योग है [ मोहोदएण जुत्ता विदा य] २ मोहके उदय ( मिथ्यात्व कषाय ) सहित हैं ओर ३ मोहके उदय रहित भी हैं । ÷
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भावार्थ:- - मन वचन कायका निमित्त पाकर जीवके प्रदेशोंका चलाचल होना सो योग है उसीको आस्रव कहते हैं । वे गुणस्थानकी परिपाटीमें सूक्ष्मसांपराय दसवें गुणस्थान तक तो मोहके उदयरूप यथासंभव मिथ्यात्व कषाय सहित होते हैं उसको सांपरायिक आस्रव कहते हैं और ऊपर तेरहवें गुणस्थान तक मोह उदयसे रहित होते
* [ भेदविज्ञान सहित अक्षय अविनाशी निजात्माके आश्रय करने द्वारा ] । [ प्रथम तो मिथ्यात्व ही आस्रव है ] ।
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