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लोकानुप्रेक्षा
कुण्डलिया। लोकालोक विचारिक, सिद्धस्वरूपचितारि । रागविरोध विडारिक, आतमरूपसंवारि ।। आतमरूपसंवारि, मोक्षपुर बसो सदा ही । आधिष्याधिजरमरन, आदि दुख ह न कदाही ।। श्रीगुरु शिक्षा धारि, टारि, अभिमान कुशोका। मनथिरकारन, यह विचारि निजरूप.सुलोका ॥१०॥ इति लोकानुप्रेक्षा समाता ॥१०॥
★ बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा जीवो अर्णतकालं, वसइ णिगोएसु आइपरिहोणो।
तत्तो णीस्सरिऊणं, पुढवीकायादिओ होदि ॥२८४॥
अन्वयार्थ:-[ जीवो आइपरिहीणो अणंतकालं गिगोएसु वसइ ] यह जीव अनादिकालसे लेकर संसारमें अनन्तकाल तक तो निगोदमें रहता है [ तत्वो णीस्सरिऊगं पुढेवीकायादिभो होदि ] वहाँसे निकलकर पृथ्वीकामादिक पर्यायको धारण करता है।
भावार्थ:--अनादिसे अनन्तकालपर्यन्त तो नित्यनिगोदमें जीघका निवास है। वहां एक शरीरमें अनन्तानन्त जीवोंका माहार, स्वासोच्छवास, जीवन, मरण समान है। स्वासके अठारहवें भाग आयु है । वहांसे निकलकर कदाचित् पृथिवी, अप, तेज, पायुकाय पर्याय पाता है सो यह पाना दुर्लभ है ।
अब कहते हैं कि इससे निकलकर संपर्याय पाना दुर्लभ है--
तत्थ वि असंखकालं, बायरसुहमेसु कुणइ परियतं । चिंतामणि व दुलह, तसत्तणं लहदि कट्ठण ॥२८॥
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