Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Kartikeya Swami, Mahendrakumar Patni
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 248
________________ द्वादश तप २२६ अन्वयार्थ:-[णिस्सेसमोह विलए ] आत्मा समस्त मोहकर्मके नाश होने पर [ खीणकसाए य अंतिमे काले ] क्षीणकषाय गुणस्थानके अन्तके कालमें [ ससरूवम्मि णिलीणो] अपने स्वरूपमें लीन हुवा [ एयत्तं सुक्कं ज्झाएदि ] दूसरा शुक्लध्यान एकत्ववितर्कवीचारध्यान करता है। भावार्थः-पहिले पायेमें उपयोग पलटता था सो पलटता रह गया । एक द्रव्य तथा पर्याय पर, एक व्यंजन पर, एक योग पर रुक गया । अपने स्वरूप में लोन है हो, अब घातिया कर्मके नाशसे उपयोग पलटेगा सो सबका प्रत्यक्ष ज्ञाता होकर लोकालोकको जानना यह ही पलटना शेष रहा है। अब तीसरे भेदको कहते हैंकेवलणाणसहावो, सुहमे जोगम्हि संठिो काए । जंज्झायदि सजोगिजिणो, तं तिदियं सुहमकिरियं च ॥४८४॥ अन्वयार्थः- [ केवलणाणसहावो ] केवल ज्ञान ही है स्वभाव जिसका ऐसा [ सजोगिजिणो ] सयोगीजिन [ सुहमे काए जोगम्हि संठिओ ] जब सूक्ष्म काययोगमें स्थित होकर उस समय [ जं ज्झायदि ] जो ध्यान करता है [तं तिदियं सुहमकिरियं च ] वह तीसरा सूक्ष्म क्रिया नामक शुक्लध्यान है । भावार्थ:-जब घातिया कर्म के नाशसे केवलज्ञान उत्पन्न होता है तब तेरहवाँ गुणस्थानवर्ती सयोगकेवली होता है वहाँ उस गुणस्थान कालके अन्त में अन्तर्मुहूर्त शेष रहता है तब मनोयोग वचनयोग रुक जाते हैं और काययोगकी सूक्ष्म क्रिया रह जाती है तब शुक्लध्यानका तीसरा पाया कहलाता है । यहाँ उपयोग तो केवलज्ञान उत्पन्न हुआ तबहीसे अवस्थित है और ध्यान में अन्तमुहर्त ठहरना कहा है सो इस ध्यानकी अपेक्षा तो यहाँ ध्यान है नहीं और योगके रुकने की अपेक्षा ध्यानका उपचार है । उपयोगकी अपेक्षा कहें तो उपयोग रुक हो रहा है कुछ जानना रहा नहीं तथा पलटानेवाला प्रतिपक्षी कर्म रहा नहीं इसलिये सदा ही ध्यान है । अपने स्व स्वरूपमै रम रहे हैं । ज्ञेय आरसी ( दर्पण ) की तरह समस्त प्रतिविम्बित हो रहे हैं । मोहके नाशसे किसी में इष्ट अनिष्टभाव नहीं हैं ऐसे सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती नामक तीसरा शुक्लध्यान प्रवर्त्तता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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