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द्वादश तप
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इस तपका फल पानेवाले साधु चार प्रकारके कहे गये हैं-१ अनगार, २ यति, ३ मुनि ४ ऋषि । सामान्य साधु गृहवासके त्यागी मूलगुणोंके धारक अनगार हैं । ध्यानमें स्थित होकर श्रेणी मांडनेवाले यति हैं। जिनको अवधि मनःपर्ययज्ञान हो तथा केवलज्ञान हो सो मुनि हैं और ऋद्धिधारी हों सो ऋषि हैं । इनके चार भेद हैं-१ राजषि, २ ब्रह्मर्षि, ३ देवर्षि, ४ परमर्षि विक्रिया ऋद्धिवाले राजर्षि, अक्षीणमहानस ऋद्धिवाले ब्रह्मर्षि, आकाशगामी देवर्षि और केवलज्ञानो परमर्षि हैं । अब इस ग्रन्थके कर्ता श्रीस्वामिकात्तिकेय मुनि अपना कर्त्तव्य प्रगट करते हैं
जिणवयणभावण', सामिकुमारेण परमसद्धाए ।
रइया अणुवेकवाओ, चंचलमण-रुंभण? च ॥४८७॥
अन्वयार्थः--[ अणुवेक्खाओ ] यह अनुप्रेक्षा नामक ग्रन्थ [ सामिकुमारेण ] स्वामिकुमारने ( यहाँ कुमार शब्दसे ऐसा सूचित होता है कि यह मुनि जन्महीसे ब्रह्मचारी थे ) [ परमसद्धाए ] श्रद्धापूर्वक ( ऐसा नहीं कि कथनमात्र कर दिया हो, इस विशेषणसे अनुप्रेक्षासे अत्यन्त प्रीति सूचित होती है ) [ जिणवयणभावणटुं] जिनवचनकी भावनाके लिये ( इस वचनसे यह बताया है कि ख्याति लाभ पूजादिक लौकिक प्रयोजनके लिये यह ग्रन्थ नहीं बनाया है, जिनवचनका ज्ञान श्रद्धान हुआ है उसकी बारम्बार भावना करना स्पष्ट करना जिससे ज्ञानकी वृद्धि हो कषायोंका नाश हो ऐसा प्रयोजन है ) [ चंचलमणरु भणच रइया ] और चंचल मन को रोकने के लिये रचा ( बनाया ) है । इस विशेषणसे ऐसा जानना कि मन चचल है इसलिये एकाग्र नहीं रहता है उसको इस शास्त्र में लगावें तो रागद्वेषके कारण विषय कषायोंमें न जावे इस प्रयोजनके लिये यह अनुप्रेक्षा ग्रन्थ बनाया है सो भव्यजीवोंको इसका अभ्यास करना योग्य है जिससे जिनवचनकी श्रद्धा हो, सम्यग्ज्ञानको वृद्धि हो और मन चंचल है सो इसके अभ्यासमें लगे, अन्य विषयोंमें व जावे । अब अनुप्रेक्षाका माहात्म्य कहकर भव्योंको उपदेशरूप फलका वर्णन करते हैं
वारसअणुवेक्खाओ, भणिया हु जिणागमाणुसारेण । जो पढइ सुणइ भावइ, सो पावइ उत्तमं सोक्खं ॥४८८॥
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